मैंने एक रचना सन 1981 में लिखी थी। मेरी ये इच्छा थी कि वो सम सामयिक होकर रह जाए.. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। हमारी व्यवस्थाएं और हमारी सोच में इन 31 सालों से ज्यादा समय के बाद भी ऐसा परिवर्तन नहीं आ सका है कि ये रचना सम सामयिक होकर रह जाती...अपितु यह कालजयी हो गयी लगती है...गंभीरता के साथ इसे पढ़ें और आज का वातावरण देखकर कुछ ऐसा परिवर्तन लाएं जो यक रचना एक सामयिक रचना होकर रह जाए.
स्त्री हो या पुरूष
मैं सबकी तरफ सरेआम एक आँख मींचता हूं
जी हां फोटोग्राफर हूं
फोटो खींचता हूं
क्या करूं धंधा ही ऐसा है
आंख मारने में ही पैसा है
एक बार एक विचित्र प्राणी मेरे पास आया
उसने अपना एक फोटो खिंचाया
बोला
ये रहे पैसे संभालो
इसके छह प्रिंट निकालो
मैं इस बात से हैरान था
ये आदमी था या शैतान था
क्योंकि जब मैंने उसके पोज बनाए
सभी पोज अलग अलग आए
पहला प्रिंट निकाला
बिलकुल काला
दूसरा निकाला
कम्बख्त पुलिसवाला
तीसरा निकाला ये क्या जादू है
ये तो कमण्डल लिए भगवे वस्त्र वाला साधू है
चौथा मास्टर था हाथ में छड़ी थी
एक निस्सहाय छात्रा उसके पास खड़ी थी
पांचवा कंपनी का अधिकारी
उसके साथ कंपनी की एक कर्मचारी
छठा डाक्टर और उसका आपरेशन थियेटर
साथ में परेशान एक सिस्टर
फोटो खींचते अर्सा हो गया था
पर ऐसा तो कभी नहीं हुआ था
नेगेटिव एक प्रिंट छह
अचम्भा है
अब हमारा दिल उससे मिलने को बेकरार था
उसका तगड़ा इंतजार था
खैर वो आया
हमने कहा आइये
बोला मेरे फोटो लाइये
हम बोले यार तुम आदमी हो या घनचक्कर
क्या माज़रा है क्या चक्कर
हमने तुम्हारे छह प्रिंट निकाले
एक काला बाकी सब निराले
हमारी तो कुछ भी समझ में नहीं आता
कोई भी फोटो किसी से मेल नहीं खाता
दिमाग चकरा गया है हमारा
बताओ कौन सा प्रिंट है तुम्हारा
वो बोला
मेरा असली फोटो है पहले वाला
जो आया है बिलकुल काला
यही असली है
बाकी तो नकली हैं
शेष पांच में तो मेरी छाया है
इन लोगों पर मेरा ही तो साया है
हम हड़बड़ा कर पूछ बैठे
कुछ परिचय दीजिए श्रीमान
बताइये कुछ अता-पता
कुछ पहचान
बोला नहीं पहचाना.........
धिक्कार है
आजकल चारों तरफ मेरी ही जय-जयकार है
अखबारों में सम्मान है पत्रिकाओं में सत्कार है
रे मूर्ख फोटोग्राफर
मेरा नाम बलात्कार है
मैं बाहर से भीतर से काला ही काला हूं
काले मन वाला हूं काले दिल वाला हूं
हमने कहा अबे ओ बलात्कार
तू क्यों करता है अत्याचार
तेरे कारण नैतिकता का बेड़ा गर्क हो रहा है
हिन्दुस्तान स्वर्ग था नर्क हो रहा है
बोला
कह लो मुझे तो आपकी इनकी उनकी सबकी सहनी है
पर सच कहता हूं मैंने किसी की वर्दी नहीं पहनी है
मैंने तो सबसे नाता तोड़ा हुआ है
पर इन सब ने मुझे बुर्का समझ कर ओढ़ा हुआ है
इतना कह कर वो तो हो गया रफूचक्कर
और मुझे आने लगे चक्कर
अब मुझे उस नेगेटिव से दहशत हो रही है
या तो एक बाप राक्षसी हंसी हंस रहा है और बेटी रो रही है
या एक और बहन अपनी आबरू खो रही है
मैं अपनी बुद्धि को नोच रहा हूं
और समाधान सोच रहा हूं
कितनी अच्छी बात हो जाती
काश....ये दुनिया अभी नष्ट हो जाती
रचनाकार- श्री पी. के. शर्मा
संपर्क - 1/12 रेलवे कालोनी सेवानगर,
नई दिल्ली 110003
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