क्या तुम लौटा पाओगे?
जुर्म जो ये संगीन किये हैँ,
क्या उनको भर पाओगे?
जो कुछ तुमने छीन लिया है,
क्या तुम लौटा पाओगे?
थकी हुई यह सूखी धरती,
जल की दो बूँदोँ को तरसती,
उसके सीने की फुहार तुम,
उसको लौटा पाओगे?
उङते विहग शिकार बन गए,
मानवता पर वार बन गए,
कर्णप्रिय वो चहचाहटेँ,
क्या तुम लौटा पाओगे?
रंग-बिरंगी पुष्प लताएँ,
सावन की ठंडी बरखाएँ,
सौँधी माटी की सुगंध वो,
क्या तुम लौटा पाओगे?
वन्य पशु विलुप्त हो गए,
जो थे वो भी सुप्त हो गए,
बाघोँ, सिँहोँ की दहाङ वो,
क्या तुम लौटा पाओगे?
धरती माँ की अथाह हरीतिमा,
चिर यौवन की भाव भंगिमा,
सहती अत्याचार तुम्हारे,
क्या तुम लौटा पाओगे?
झेल रहीँ त्रासदी नदियाँ,
बहते-बहते बीती सदियाँ,
उन का साफ़ स्वच्छ शीतल जल,
क्या तुम लौटा पाओगे?
पेङ जो तुमने काट दिये हैँ,
हरे सूखे सब छाँट दिये हैँ,
आतंकित पेङोँ का गौरव,
क्या तुम लौटा पाओगे?
पशु-पक्षी को तुम खाते हो,
फिर भी भूखे रह जाते हो,
प्राण जो तुमने छीन लिये हैँ,
क्या तुम लौटा पाओगे?
खोद चले हिमालय सारा,
मिला है जो दैवीय सहारा,
विस्मित हो कर धरती पूँछे,
"क्या तुम लौटा पाओगे?"
रचनाकार: सुश्री स्वरदा सक्सेना
बुलन्दशहर , उत्तर प्रदेश
शानदार मार्मिक यथार्थ अभिव्यक्ति ............
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा सार्थक रचना ,,,
ReplyDeleterecent post: बसंती रंग छा गया
Umda rachna
ReplyDeletements:
ReplyDeleteAlka Gupta ji, धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ji aur Shanti Purohit ji apka abhaar... ki aapne pdha or saraaha.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबसन्त पंचमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ!बेहतरीन अभिव्यक्ति.सादर नमन ।।
ReplyDeleteबहुत ही प्यारी और भावो को संजोये रचना......
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete