कुछ साल पहले की ही बात होगी जब उसने राष्ट्रपति भवन से सटे और आम लोगों के लिए लगभग निषिद्ध हमारे कार्यालय परिसर में कदम रखा था और सरकारी दफ़्तर के विशुद्ध औपचारिक वातावरण में पायल की रुनझुन सुनकर हम सभी चौंक गए थे.चौकना लाजमी था क्योंकि सहकर्मी महिला साथियों के लिए खनकती पायल गुजरे जमाने की बात हो गयी थी और बाहर से पायल की छनछन के साथ किसी महिला का ‘प्रवेश निषेध’ वाले क्षेत्र में आना लगभग नामुमकिन था. हालांकि धीरे धीरे हम सभी इस छनछन के आदी हो गए.वह सुशीला थी बाल विवाह की जीवंत मिसाल, जो मध्यप्रदेश के छतरपुर से अपनी जड़ों को छोड़कर इन भव्य इमारतों के बीच अपने परिवार के साथ ठेके पर मजदूरी करने आई थी.गर्भवती सुशीला जब अपने पति और सास के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बोझा उठाती तो उसकी जीवटता को देखकर मेरे दफ़्तर की सहकर्मी महिलाओं के दिल से भी आह निकल जाती थी. वे गाहे-बेगाहे अपना टिफिन उसे खाने के लिए दे देतीं और इस मानवता के फलस्वरूप उस दिन उन्हें गोल मार्केट के खट्टे-मीठे गोलगप्पों और चाट-पकौड़ी से काम चलाना पड़ता. कुछ हफ्ते बाद ही इस निषेध क्षेत्र में एक नन्ही परी की किलकारियों ने घुसपैठ कर ली. उसका रुदन सुनकर ऐसा लगता मानो वह देश के सबसे संभ्रांत और बुद्धिजीवियों से भरी राजधानी दिल्ली की किस्मत पर रो रही हो जहाँ लक्ष्मी समान कन्या को जन्म लेने के पहले ही ‘स्वर्गवासी’ बना दिया जाता है.
लड़की पैदा होने के बाद भी न तो सुशीला की अनपढ़ सास ने उसे कोसा और न ही पति ने भला-बुरा कहा.वे सभी इस नन्ही मुनिया के साथ खुशियाँ मनाते हुए अपने काम में जुटे रहे.मुनिया भी दफ़्तर के गलियारे में उलटती-पलटती रहती और हम सभी को आते जाते देख टुकुर-टुकुर ताकती. बचपन से ही उसने दिल्ली की सर्दी और गर्मी को सहने की शक्ति हासिल कर ली.शायद ईश्वर भी बेटियों को जमाने से लड़ने के लिए कुछ अतिरिक्त ताकत बख्श देता है.समय बीतने के साथ वह हम सभी के बिस्किट,चाकलेट और आए दिन होने वाली पार्टियों की मिठाई में हिस्सा बांटने लगी.कुछ ही महीनों या यों कहें समय से पहले ही मुनिया अपने नन्हें क़दमों और मीठी सी किलकारी से हमारे कार्यालय की नीरवता और बोरियत को दूर करने का माध्यम बन गयी. हमारे बच्चों के पुराने होते कपड़े उसके लिए रोज नई पोशाख बन गए और कपड़ों से जुड़े अपनेपन ने मुनिया और हमारे दिल के तार और भी गहराई से जोड़ दिए. समय ने उड़ान भरी तो मुनिया के हिस्से के प्यार को बांटने के लिए दबे पाँव उसकी एक बहन और आ गयी. बस फिर क्या था ढंग से चलना भी नहीं सीख पायी मुनिया ने बिना कहे ‘छुटकी’ की आया की जिम्मेदारी भी संभाल ली. अपने घर और परिवार से हजारों किलोमीटर दूर हमारे दफ़्तर में तैनात संतरियों के लिए तो मोटा काजल लगाए दो चोटियों के साथ दिनभर गौरैया सी फुदकती मुनिया खिलौने की तरह थी. कभी कोई उसे गिनती सिखाता तो कोई ए बी सी डी तो कोई ककहरा. यहाँ तक की गेट पर पूरी मुस्तैदी के साथ अपनी ड्यूटी करने के दौरान भी वे मुनिया को देखते ही उससे ‘होमवर्क’ का हिसाब किताब करना नहीं भूलते. अब इतने बहुभाषी गुरुओं के बीच मुनिया भी कहां पीछे रहने वाली थी . हमारे दफ़्तर की ज्यादातर दीवारें मुनिया का ब्लैकबोर्ड बनकर आदिवासी चित्रकला का सा आभास देने लगी.अब तक छुटकी भी गिरते पड़ते उसके पीछे भागने लगी थी और दफ़्तर के कोने-कोने में फैली उसकी पाठशाला में अक्सर व्यवधान डाल देती मगर न तो मुनिया ने हार मानी और न ही हर तरफ फैले उसके सैन्य गुरुओं ने पढाने का कोई मौका छोड़ा. सैनिकों की देखा-देखी जब मुनिया सलामी ठोंकती तो कड़क अनुशासन में पगे सैन्य कर्मियों की भी हंसी छूट जाती.
आज मुनिया चली गई.ठेकेदार के काम पर आश्रित उसके परिवार को यहाँ का काम समाप्त होते ही शायद नए ठिकाने पर भेज दिया गया था.सुशीला,मुनिया और छुटकी के जाते ही दफ़्तर के विशाल परिसर में फिर मनहूसियत समा गई.अब तक ‘काबुलीवाला’ के अंदाज में मुनिया से नाता जोड़ चुके फौजी साथी तो गमगीन थे ही, हम भी चिंतित और परेशान थे, इसलिए नहीं कि मुनिया क्यों चली गई क्योंकि उसे तो एक न एक दिन यहाँ से जाना ही था बल्कि इसलिए कि कहीं वो भी अपनी माँ सुशीला की तरह बालिका वधु परंपरा की एक और कड़ी न बन जाए और फिर कुछ साल बाद ऐसे ही किसी दफ़्तर में समय से पहले गोद में बच्चा लिए पत्थर तोडती नजर आए. ईश्वर, मुनिया के बचपन को बचा लेना....प्लीज.