देश के तमाम समाचार पत्रों में संपादक नाम की सत्ता की ताक़त तो लगभग दशक भर पहले ही छिन गयी थी. अब तो संपादक के नाम का स्थान भी दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है. इन दिनों अधिकतर समाचार पत्रों में संपादक का नाम तलाशना किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने या वर्ग पहेली को हल करने जैसा दुष्कर हो गया है. नामी-गिरामी और सालों से प्रकाशित हो रहे समाचार पत्रों से लेकर ख़बरों की दुनिया में ताजा-तरीन उतरे अख़बारों तक का यही हाल है. अख़बारों में आर्थिक नजरिये से देखें तो संपादकों के वेतन-भत्ते और सुविधाएँ तो कई गुना तक बढ़ गयी हैं लेकिन बढते पैसे के साथ ‘पद और कद’ दोनों का क्षरण होता जा रहा है.
एक दौर था जब अखबार केवल और केवल संपादक के नाम से बिकते थे.संपादकों की प्रतिष्ठा ऐसी थी कि अखबार पर पैसे खर्च करने वाले सेठ की बजाए संपादकों की तूती बोलती थी. माखनलाल चतुर्वेदी,बाल गंगाधर तिलक,मदन मोहन मालवीय,फिरोजशाह मेहता और उनके जैसे तमाम संपादक जिस भी अखबार में रहे हैं उस अखबार को अपना नाम दे देते थे और फिर पाठक अखबार नहीं बल्कि संपादक की प्रतिष्ठा,समझ और विश्वसनीयता को खरीदता था. उसे पता होता था कि इन संपादकों के होते हुए विषय वस्तु से लेकर अखबार की शैली तक पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. पुराने दौर के संपादकों का जिक्र छोड़ भी दें तब भी आपके–हमारे दौर के राहुल बारपुते,राजेन्द्र माथुर,प्रभाष जोशी,कुलदीप नैय्यर,एन राम,अरुण शौरी और शेखर गुप्ता जैसे संपादकों को न तो किसी नाम की दरकार थी और न ही पहचान की,इसके बाद भी अखबार इनके नाम से अपनी ‘ब्रांडिंग’ करते थे लेकिन अब लगता है कि समाचार पत्र प्रबंधन/मालिकों पर संपादक के साथ-साथ उसका नाम भी बोझ बनता जा रहा है और वे इसे जगह की बर्बादी मानने लगे हैं तभी तो संपादक का नाम छापने के लिए ऐसी जगह और प्वाइंट साइज(शब्दों का आकार) का चयन किया जा रहा है जिससे नाम छापने की खानापूर्ति भी हो जाए और किसी को पता भी न चले कि संपादक कौन है. यहाँ संपादक का नाम से तात्पर्य प्रधान संपादक से लेकर स्थानीय संपादक जैसे विविध पद शामिल है.
मीडिया में बनी ‘दिल्ली ही देश है’ की अवधारणा के अनुरूप जब दिल्ली से प्रकाशित सभी प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी के अख़बारों का इस सम्बन्ध में अध्ययन और विश्लेषण किया तो मैंने पाया कि संपादक के नाम के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ टाइम्स समूह के समाचार पत्रों में हुआ है. टाइम्स आफ इंडिया के दिल्ली संस्करण में इन दिनों संपादक का नाम छटवें पृष्ठ पर इतने छोटे आकार में प्रकाशित किया जा रहा है कि उसे दूरबीन के जरिये ही पढ़ा जा सकता है.यही हाल इस समूह के हिंदी अखबार नवभारत टाइम्स का है.इसमें संपादक का नाम तो सम्पादकीय पृष्ठ पर छपता है लेकिन उसे तलाशना और पढ़ना बिना मोटे ग्लास वाले चश्मे या दूरबीन के संभव नहीं है.इसी समूह के आर्थिक समाचार पत्र इकामानिक टाइम्स में संपादक के नाम को अंतिम पृष्ठ पर स्थान दिया गया है.यह पठनीय तो है लेकिन इसे कार्टून के ठीक नीचे प्रकाशित करने के कारण इसकी गरिमा जरुर प्रभावित होती है. इंडियन एक्सप्रेस में इसे पारंपरिक ढंग से अंतिम पेज पर बाटम(सबसे नीचे) में स्थान दिया गया है जो पठनीय और दर्शनीय दोनों है. एक अन्य बड़े समाचार पत्र समूह हिंदुस्तान टाइम्स में संपादक को पृष्ठ क्रमांक २१ पर बाटम में स्थान दिया गया है जबकि इसी समूह के हिंदी अखबार हिंदुस्तान ने संपादक के नाम का आकार-प्रकार जरुर कम कर दिया है लेकिन प्रकाशन का तरीका वही पारंपरिक (अंतिम पृष्ठ पर बाटम में) रखा है. इसीतरह दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में भी संपादक के नाम को फिलहाल सही जगह और सही आकार-प्रकार हासिल है.
प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक हिंदू में पेज तीन की बाटम में,अमर उजाला में खेल पृष्ठ पर, जनसत्ता में अंतिम पेज पर, नेशनल दुनिया में तीन नंबर पेज पर और दैनिक जागरण में पेज क्रमांक १७ पर संपादक के नाम को स्थान दिया गया है. दैनिक जागरण में नाम को बकायदा बाक्स में सम्मानजनक ढंग से प्रकाशित किया जा रहा है, वहीं जनसत्ता में पेज तो वही रहता है परन्तु विज्ञापनों के दबाव में नाम की जगह बदलती रहती है.नेशनल दुनिया में जब तक आलोक मेहता संपादक थे तब तक उनका नाम काफ़ी बड़ी प्वाइंट साइज में जाता था लेकिन उनके हटते ही संपादक की स्थिति भी बदल गयी. राष्ट्रीय सहारा और पंजाब केसरी में संपादक के नाम को स्थान तो सम्पादकीय पृष्ठ पर दिया जा रहा है लेकिन राष्ट्रीय सहारा में संपादक के नाम के साथ इतनी सारी सूचनाओं का घालमेल कर दिया गया है कि नाम महत्वहीन सा लगता है,वहीं पंजाब केसरी में तो नाम तलाशना और पढ़ना मुश्किल काम है.यही नहीं प्रबंधन दिल्ली-जयपुर संस्करण को मिलाकर एक साथ नाम प्रकाशित कर रहा है इससे भी भ्रम की स्थिति बन जाती है.
संजीव शर्मा
संपादक, सैनिक समाचार,
नई दिल्ली