मुट्ठी भर शाम
अक्सर तुम्हारे जिस्म से
लिपट कर
सुर्ख लाल हो जाती है-
और रात
ठहर जाती है
तुम्हारी ठंडी
पलकों पर,
और मै
चुपके से...
पिघलती हुई शाम को
ओढ़ कर
रात के आँगन में
बसर कर लेता हूँ.
रविश 'रवि'
फरीदाबाद