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Monday, May 12, 2014

मुट्ठी भर शाम

मुट्ठी भर शाम
अक्सर तुम्हारे जिस्म से
लिपट कर  
सुर्ख लाल हो जाती है-
और रात
ठहर जाती है  
तुम्हारी ठंडी
पलकों पर,
और मै
चुपके से...
पिघलती हुई शाम को
ओढ़ कर
रात के आँगन में
बसर कर लेता हूँ.
रविश 'रवि'
फरीदाबाद
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