यदि आप सोशल मीडिया के किसी भी प्रकार से जुड़े हैं तो शायद आपको भी आज़ादी के जश्न में मगरूर नई पीढ़ी द्वारा क़तर-व्योंत से तैयार मनगढ़ंत दस्तावेजों, आज़ादी के दौर की ख़बरों के नाम पर नए और छदम अखबारों, महापुरुषों के छिद्रान्वेषण और नए प्रतीक गढ़ने के प्रयासों (दुष्प्रयासों) से दो चार होना पड़ा होगा. ये कैसा जश्न है जिसमें सर्वस्वीकार्य आदर्शों को ढहाने और नए कंगूरे बनाने के लिए इतिहास से ही छेड़छाड़ की जा रही है? नए कंगूरे अवश्य रचे जाने चाहिए क्योंकि देश बस कुछ नायकों के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता. हर पीढ़ी को अपने दौर के नायक चाहिए लेकिन इसके लिए नया इतिहास रचने और ऐतिहासिक दस्तावेजों को खंगालने की जरुरत है न कि इतिहास को बदलने या विद्रूप करने की.
इस वर्ष स्वाधीनता दिवस पर देशभक्ति के जिस भोंडे प्रदर्शन से सोशल मीडिया रंगा रहा है उससे तो अब हमें अपने स्वाधीनता दिवस को स्वतंत्रता दिवस कहना उपयुक्त लगने लगा है और शायद आने वाले सालों में इसे स्वतंत्रता दिवस के स्थान पर स्वेच्छाचारिता दिवस, उन्मुक्तता दिवस या निरंकुशता दिवस जैसे नए नामों से पुकारा जाना लगे. दरअसल मुझे तो सोशल मीडिया शब्द पर भी आपत्ति है क्योंकि यह भी सामाजिकता के नाम पर असामाजिकता ज्यादा फैला रहा है इसलिए इसे नान-सोशल मीडिया कहना ज्यादा बेहतर होगा. सोशल मीडिया ने जिन महापुरुषों का सबसे ज्यादा चरित्र हनन किया है उनमें सबसे पहला नाम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का है. बापू के आदर्श,त्याग, सत्यनिष्ठा, समझ, पल पल दी गयी कुर्बानियां और नैतिकता आज के दौर के इस मीडिया और उसके स्वयंभू पैरोकारों के लिए हास्य-विनोद का साधन बन गए हैं. पंद्रह अगस्त पर घोषित ड्राई डे (शराब निषेध दिवस) का मज़ाक बनाने के लिए बापू की तस्वीरों और उद्धरणों को जिस शर्मनाक तरीके से इस्तेमाल किया गया वह वाकई अफ़सोसनाक है और भविष्य के लिए गंभीर चेतावनी भी.
बापू का मखौल उड़ाने में मुन्नाभाई मार्का गांधीगिरी ने पहले ही कोई कसर नहीं छोड़ी थी पर अब तो हद है. वास्तव में यह चिंता का सबब भी है क्योंकि सोशल मीडिया पर बहुतायत में यत्र-तत्र बिखरी यह सामग्री भविष्य में गूगल सर्च के जरिये दुनिया भर में आसानी से उपलब्ध होगी और आने वाली पीढ़ियों के लिए बापू जैसे इतिहास के अमर प्रतीकों के बारे में भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी. यदि इसे समय पर रोका नहीं गया तो कुछ वैसे ही हादसे सामने आएँगे जैसे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में सर्च करने पर कभी अपराधी तो कभी भ्रष्ट जैसी अनहोनी जानकारियां सामने आती रही हैं. वो तो भला है कि वे अभी सत्ता में हैं इसलिए सरकार ने बाकायदा विरोध दर्ज कराया और गूगल को माफ़ी मांगकर इसतरह कि भ्रामक एवं त्रुटिपूर्ण जानकारियों को हटाना पड़ा लेकिन बापू की सुध कौन लेगा? महात्मा गाँधी तो इन दिनों बस नोट और वोट छापने का माध्यम बनकर रह गए हैं. दरअसल नोट पर उनकी तस्वीर लगा देने से नोट की वैध्यता कायम हो जाती है और वोट के लिए बापू के नाम का इस्तेमाल तो किसी से छिपा नहीं है.
दरअसल सोशल मीडिया एक दुधारू तलवार है. भले ही आज यह किसी के चरित्र हनन का औजार बन जाए लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वह भविष्य में किसी और को या यहाँ तक की स्वयं आपको या आपके अपनों को बख्श देगा! सोशल मीडिया के अनाम-गुमनाम सिपाहियों की स्थिति तो ‘बन्दर के हाथ में उस्तरा’ जैसी है. उन्हें तो बस इसका इस्तेमाल करना है फिर चाहे वह परायों को काटे या फिर अपनों को इसलिए सोशल मीडिया से यह आशा करना तो व्यर्थ है कि वह ’स्व-अनुशासन’ या ‘स्व-नियमन’ जैसा कोई कदम उठाएगा परन्तु सरकारी और खासतौर पर गैर-सरकारी स्तर पर इसके नियमन और इस पर नियंत्रण के लिए समय रहते कुछ कदम उठाने जरुरी हैं वरना कभी ऐसी भी स्थिति आ सकती है जब हमें इस मीडिया द्वारा सृजित नए इतिहास बोध के कारण शर्मिंदा होना पड़े.