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इन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया खासकर न्यूज़ चैनलों और सोशल मीडिया को खरी-खोटी सुनाना एक फैशन बन गया है. मीडिया की कार्यप्रणाली के बारे में ‘क-ख-ग’ जैसी प्रारंभिक समझ न रखने वाला व्यक्ति भी ज्ञान देने में पीछे नहीं रहता. हालाँकि यह आलोचना कोई एकतरफा भी नहीं है बल्कि टीआरपी/विज्ञापन और कम समय में ज्यादा चर्चित होने की होड़ में कई बार मीडिया भी अपनी सीमाएं लांघता रहता है और निजता और सार्वजनिक जीवन के अंतर तक को भुला देता है. वैसे जन-अभिरुचि की ख़बरों और भ्रष्टाचार को सामने लाने के कारण न्यूज़ चैनल तो फिर भी कई बार तारीफ़ के हक़दार बन जाते हैं लेकिन सोशल मीडिया को तो समय की बर्बादी तथा अफवाहों का गढ़ माना लिया गया है.
आलम यह है कि सोशल मीडिया पर वायरल होते संदेशों के कारण अब ‘वायरल सच’ जैसे कार्यक्रम तक आने लगे हैं लेकिन, वास्तविक धरातल पर देखें तो न्यू मीडिया के नाम से सुर्खियाँ बटोर रहे मीडिया के इस नए स्तम्भ का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो यह वरदान बन सकता है. कई बार मुसीबत में फंसे लोगों तक सहायता पहुँचाने में फेसबुक,ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के लोकप्रिय प्लेटफार्म ने गज़ब की तेज़ी दिखाते हुए अनुकरणीय उदाहरण पेश किए हैं. बाढ़,भूकंप,आग प्राकृतिक आपदाओं के दौरान इस मीडिया की सकारात्मक भूमिका अब सामने आने लगी है. निजी तौर पर सोशल मीडिया की सक्रियता के तो बेशुमार उदाहरण मौजूद हैं लेकिन सरकारी स्तर पर भी यह मीडिया इन दिनों कारगर भूमिका निभा रहा है. हाल ही में रेलमंत्री और उनके मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता के कारण मुसीबत में फंसे यात्रियों को समय पर सार्थक मदद मिलने के कई किस्से सामने आ रहे है. यहाँ तक कि इस मीडिया के चलते नवजात बच्चे को ट्रेन में दूध से लेकर डायपर तक उपलब्ध कराने जैसी मानवीय पहल देखने को मिली है. ट्रेन में महिलाओं से छेड़छाड़ रोकने और बदमाशों को मौके पर ही गिरफ्त में लेने में भी इस मीडिया ने अहम् भूमिका निभाई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोशल मीडिया पर सक्रियता किसी से छिपी नहीं है. वे इस मंच का इस्तेमाल आम जनता के संपर्क में रहने के लिए बखूबी करते हैं और शायद यही कारण है कि ‘स्वच्छ भारत’ और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढाओ’ जैसे सामाजिक कल्याण से जुड़े कार्यक्रम शुरू होते ही न केवल आम जनता तक पहुँच जाते हैं बल्कि जन-सामान्य के मन की थाह लेने में भी सहायक बनते हैं. यदि कुछ साल पहले के परिपेक्ष्य में देखे तो यह सब अविश्वसनीय सा लगता है. पहले सामाजिक कल्याण से जुडी सरकारी योजनाएं जन-सामान्य तक तब पहुँच पाती थीं जब कि वे या तो समाप्त होने के कगार पर होती थीं या फिर जन-भागीदारी के अभाव में वे असफल हो जाती थीं. आकाशवाणी से प्रसारित प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ कार्यक्रम में आम लोगों की भागीदारी सोशल मीडिया की वजह से ही संभव हो पायी है. प्रधानमंत्री द्वारा विभिन्न देशों की यात्रा के दौरान सोशल मीडिया के जरिए उस देश की भाषा में सन्देश प्रेषित करने से गर्मजोशी और परस्पर उत्साह का जो माहौल बनता है उससे सुदृढ़ रणनीतिक संबंधों की नींव रखने में भी मदद मिलती है.
अब तो सरकार के अधिकतर मंत्रालय सोशल मीडिया पर सक्रिय है लेकिन विदेश मंत्रालय की ट्विटर पर सक्रियता से हाल ही में असम के दो परिवारों को नया जीवन मिल गया. चंद शब्दों में अपनी बात को सीधे सम्बंधित व्यक्ति तक तुरंत पहुंचा पाने की कुशलता के कारण इस नए मीडिया ने इन परिवारों के परिजनों को विदेश से सुरक्षित वापस लाने में अनुकरणीय सहायता की.
असम की आराधना बरुआ यूक्रेन में डाक्टरी की पढाई कर रही हैं और सालभर में कम से कम एक बार अपने वतन आना उनके लिए सामान्य बात थी,लेकिन हाल ही में आराधना के लिए यूक्रेन से इन्स्ताबुल होते हुए गुवाहाटी का सफ़र किसी बुरे सपने से कम नहीं था. चूँकि इन्स्ताबुल में विमान को काफी देर तक रुकना था इसलिए आदत के मुताबिक आराधना विमान से बाहर निकलकर चहलकदमी करने लगी. पहले भी वे ऐसा करती रही हैं और यह सामान्य बात थी लेकिन इन्स्ताबुल में हाल ही हुए आतंकी हमले के बाद वहां के सुरक्षा हालात बदल गए थे. इस बार जैसे ही आराधना विमान से बाहर निकली सुरक्षा एजेंसियों ने बिना ट्रांजिट वीसा के बाहर घूमने के आरोप में उसे हिरासत में ले लिया. बिन बुलाए आई इस मुसीबत ने आराधना के होश उड़ा दिए. फिर धीरज से काम लेते हुए उसने किसी तरह असम की बराक घाटी में इन्स्पेक्टर आफ स्कूल के पद पर तैनात अपने पिता को फोन किया. मामले की गंभीरता को समझते हुए बदहवास पिता ने अपने ज़िले हैलाकांदी के डिप्टी कमिश्नर से मदद मांगी. डिप्टी कमिश्नर मलय बोरा ने भी मामले की नजाकत को समझते हुए और सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर बिना समय गँवाए तत्काल ट्विटर पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को सन्देश भेजकर सहायता की गुहार लगाई. विदेश मंत्री ने भी बिना देर किए इन्स्ताबुल में भारतीय दूतावास के एक अधिकारी को आराधना को सुरक्षित भारत भेजने का दायित्व सौंप दिया.
सोशल मीडिया की इस सक्रियता का असर दिखा और आराधना के लिए न केवल सभी जरुरी दस्तावेजों का इंतजाम हो गया बल्कि उसे दूसरी फ्लाइट से भारत रवाना भी कर दिया गया. असम में अपने घर पहुंचकर आराधना ने चैन की सांस ली और सरकार की इस मानवीय पहल के प्रति आभार जताया क्योंकि इसके फलस्वरूप ही वह सुरक्षित अपने घर आ पायी.
असम के ही सिलचर के निवासी जायफुल रोंग्मेई की कहानी तो और भी दिल दहलाने वाली है. एक तेल कंपनी के जहाज पर नाविक की नौकरी कर रहे रोंग्मेई को बिना किसी गलती के नाइजीरिया में तेल चोरी के आरोप में बंदी बना लिया गया था जबकि असलियत में उसके जहाज को ईंधन की कमी के कारण मज़बूरी में नाइजीरिया की सीमा में लंगर डालना पड़ा था. किसी तरह रोंग्मेई की परेशानी की कहानी उसके घर तक पहुंची और फिर स्थानीय विधायक और सांसद के जरिए विदेश मंत्री को इस बात का पता चला तो उन्होंने बिना देर किए रोंग्मेई और उनके साथ नाइजीरिया की जेल में बंद उनके ग्यारह अन्य भारतीय साथियों को छुड़ाने के प्रयास तेज कर दिए. सरकार की मध्यस्तता के फलस्वरूप रोंग्मेई बीते सप्ताह अपनी पत्नी और छह साल के बेटे के पास घर वापस आ गए.
जरा सोचिए, संपर्कों और साधनों के लिहाज से देश के सबसे कमजोर इलाके पूर्वोत्तर के भी दूर दराज के हिस्सों में रहने वाले इन लोगों के न तो कोई बड़े संपर्क थे और न ही इतना पैसा की उन देशों तक जाकर अपने परिजनों की कोई मदद कर पाते लेकिन सोशल मीडिया के विस्तार ने एक के बाद एक कड़ियाँ जोड़ दी और महीनों का सफ़र मिनटों में पूरा हो गया. नए भारत के इस नए मीडिया के इन सकारात्मक पहलुओं से एक बात तो पूरी तरह साफ़ हो जाती है कि यदि सोशल मीडिया का समझदारी से इस्तेमाल किया जाए तो यह मीडिया आम जनता के कल्याण में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और उन इलाकों तक भी अपनी पहुँच बना सकता है जहाँ आज तक ट्रेन जैसी बुनियादी सेवा भी उपलब्ध नहीं है.