मेरे पंख न छीनो तुम, भरनी है उड़ाँ मुझको ।
मैं अंबर को छू लूँगी, दीजे मौक़ा मुझको।
बेटी को दिल से न यहाँ स्वीकार किया जाता,
औरत पर फ़रमान सुनाओगे अब तुम कितने?
बंद घरों में कब तक औरत ज़ुल्म सहे इतने?
जिस दुनिया में औरत को अबला न कोई समझे,
दुनियावालों ऐसा ही दो एक जहाँ मुझको।
गाँवों में उस पर तो हिंसा हद से गुज़र गई,
रोज़ नया फ़रमान मुझे क्यों सुना दिया जाता?
क्यों शिक्षा से भी मुझको महरूम किया जाता?
लगता है मैं बंद कोठरी में पल-पल मरती,
मैं भी तो जीना चाहूँ , दो धूप-हवा मुझको।
नील गगन में पुरवाई सी इठलाती झूमूँ,
फिर मर्यादा की बेड़ी मेरे पैरों में क्यों?
बेटा है अपना तो फिर, मैं ही ग़ैरों में क्यों?
जब धरती पर ही लाचारी, दुख,अपमान मिले -
आज चाँद पर जाकर भी करना है क्या मुझको?
रचनाकार: श्री अंकित गुप्ता 'अंक '
धन्यवाद प्रिय अग्रज!
ReplyDelete