Thursday, January 3, 2013

शोभना काव्य सृजन पुरस्कार प्रविष्टि संख्या - 17

विषय: पर्यावरण समस्या
सांझ के धुधलाते सायों में
सूरज का वो रक्तिम वर्ण हो जाना 
वृक्षों की लावारिस लाशों से लिपटी
मैंने देखा है प्रकृति का वो अश्रु बहाना,
कटते वृक्षदूषित जलबंजर भूमि की बेबसी 
मुद्धत हुई मुझे सुने चंचल झरने की स्वच्छन्द हँसी 
वीरान अम्बर से फुहारों का वो रूठ कर चले जाना
बहुत दूर तक देखा मैंने प्यासी धरती का तड़फड़ाना
रौंदे घौसलों में डरी सहमी जि़दगी
इन्द्रधनुष का सदा के लिए छिप जाना
मैंने देखा है नैसर्गिकता-परोपकार का
स्वार्थ के हाथों  मारे जाना
भयावह फैलती कलँकारिमा 
यह विकास की निशानी है 
मानव ने तबाह कर डाला 
जिसे परोकारिणीयह प्रकृति दीवानी है,
प्रदूषणशोरधुआँगन्दगी यह जो अनमिट
कहानी है तो कैसे कह दूँ 
भला मैं दुनिया उतनी ही सुहानी है...............
रोको तृष्णा से उत्पन्न इस विनाश को 
जीवन का स्पंदन कहीं थम ही न जाए
मानव तेरे गुरूर के लिए कहीं कोई दूसरी सुबह न आए।
स्वीकार कर प्रकृति कीसर्वोपरिता इस जग को चलाने में 
मानव तेरी भलाई है बस मानव बन रह जाने में।
बस मानव बन रह जाने में।
                                        
रचनाकार: सुश्री पूनम मेहता

कोटाराजस्थान

1 comment:

  1. Sachin PurwarJanuary 3, 2013 1:27 PM

    सुन्‍दर एवं प्रभावशाली लेखन.... :-)

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