पैसे काफ़ी नहीं
एक किशोर बेटा,
बचपन की चादर से निकलकर
यौवनावस्था की ओर बढ़ता बेटा ।
एक ओर स्कूल का दबाव,
पढाई से ज्यादा खेलों का आकर्षण,
मंजु चेहरों से दिल में होती हलचल,
और परिवार की बेशुमार उम्मीदें ।
नहीं लगता दिल घर में
दोस्ती-यारी-मस्ती और कुछ नहीं
न होती इच्छा बतियाने की माँ-पिता से भी ।
माँ की बातें सुनी नहीं जाती,
पिता के सवालों को भी टाल देता ।
डाँटकर कहते पिता कि
कितना खर्च कर रहे हैं तुम पर
मँहगी फीस और अच्छे कपडे
बहा रहे हैं पैंसों को ।
बेटे ने दिया जवाब चीखते हुए
मुझे नहीं मिलता कोई घर में ऐसा
जिससे बाँट सकूँ कुछ भाव दिल के,
जिससे कर सकूँ बातें पढाई से हटकर भी,
दुःख है, आपके पैसे प्रेम नहीं बोते,
पिताजी ! महज पैसे काफी नहीं होते ।
फिर कई वर्षों बाद -
बेटा व्यस्त विदेश में
रोजी-रोटी जुटाता
रहता पत्नी-बच्चों के साथ,
और
घर में अकेली दो जोड़ी बूढी आँखें ।
हफ्ते-महीने में होती बातें फ़ोन पर
माँ बहाती आँसू असंख्य
पिता सिसकते कोने से लगकर,
बेटा करता कोशिश समझाने की
कभी प्यार से, कभी डाँटकर
और कहता -
कि आप लोगों को कमी क्या है ?
मैं हर महीने भेज तो रहा हूँ पैसे ।
पिता सिसकते-बिलखते बोले
बेटा ! तुम्हारी याद का दाम क्या लगायें हम ?
तुम्हारे भेजे हुए कागज़ के टुकड़े
पड़े रहते हैं बैंक के खातों में मगर
बात कुछ और होती जो तुम यहाँ होते,
बेटे ! सिर्फ पैसे काफी नहीं होते ।
सिर्फ पैसे काफी नहीं होते ।।
रचनाकार: श्री आशीष नैथानी 'सलिल'
हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश)