व्यंग्य: बड़े लोग बड़ी बातें
कल एक कवि मित्र से भेंट हुई। बड़े उदास लग रहे थे। पूछने पर रुआँसे से होकर कहने लगे, “क्या बताएँ मित्र इतना परिश्रम करते हैं, लेकिन कोई लाभ नहीं मिल पाता। सैकड़ों कविताएँ लिख डालीं। रात-दिन कागजों का स्याही से पेट भरते रहते हैं, लेकिन साहित्य जगत में कोई सम्मान ही नहीं मिल पाया।” इतना कहकर सुबकते हुए कुछ पलों के लिए मेरे कंधे पर ही सो गये। उनके सोने के दौरान ही उनके विषय में मन विचारमग्न हो गया। कई साल हो गए उन्हें जानते हुए। वास्तव में बड़े ही परिश्रमी जीव हैं। कवि न होते हुए भी कवि बनने में उन्होंने जो कठिन यत्न किया, वह वास्तव में प्रशंसा के योग्य है। एक कविता लिखने के लिए लाइब्रेरी की एक-एक पुस्तक छान मारते थे। हर कविता में से अच्छी पंक्तियाँ उड़ा लेने की कला बखूबी जानते हैं हमारे कवि मित्र। दिमाग उनका इतना तिकड़मी है, कि शहर में होनेवाले अधिकतर कवि सम्मेलनों की वह शोभा बढ़ाते रहते है। बस एक बार आगामी कवि सम्मेलन की भनक पड़ जाए, मित्र महोदय आयोजक के पैरों में तब तक लोटते रहेंगे जब तक आयोजक बेचारा उनकी बेशर्मी से शर्मिंदा होकर उन्हें कवि सम्मेलन न दे दे। उन्होंने खूब पैसे कमा लिए, लेकिन उन्हें एक बात का दुःख सदैव रहता है, कि साहित्य जगत में उनका नाम नहीं हो पाया। अभी भी साहित्य जगत के लिए वह अछूत ही बने हुए हैं। तभी अचानक कवि मित्र की आँख खुल गई। अपने विचारों पर झट से ब्रेक लगा मैंने उनसे पूछा, “कवि सम्मेलनों की आप रौनक हैं, फिर भी इतनी उदासी क्यों?” शायद मेरे इस प्रश्न ने मित्र महोदय की दुखती रग पर हाथ रख दिया। वह फफककर रोने लगे और फिर अपने आँसुओं को विराम देते हुए बोले, “आपने सुना होगा अभी पिछले दिनों एक वरिष्ठ कवि को साहित्यिक सम्मान मिला था। उन्होंने सम्मान के साथ मिली धनराशि वापस उसी संस्था को वापस लौटा दी।” मैंने आश्चर्यचकित हो पूछा, “ हाँ तो इसमें गलत क्या हुआ?” मेरे प्रश्न पर वह झल्लाते हुए बोले, “अरे यार तुम तो निरे बुद्धू निकले?” उनके इस व्यवहार पर क्रोध तो आया, किंतु क्रोध को नीबू पानी की भाँति पीकर उनसे पूछ ही डाला, “इसमें बुद्दुपने की क्या बात हो गई?” वह अपनी खींसे निपोरते हुए बोले, “समझते नहीं हो यार। हो सकता है कि उन वरिष्ठ कवि ने पहले से ही उस संस्था से फिक्सिंग कर रखी हो, कि आप हमें सम्मान देना हम आपको वह राशि वापस कर देंगे।” मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, “देखिए ऐसा कुछ नहीं हैं। आपको कुछ ग़लतफ़हमी हो गई है।” वह मुस्कुराते हुए बोले, “ख़ाक ग़लतफ़हमी हो गई है। आती लक्ष्मी को कोई भला ठुकराता है क्या? बताओ ये भी कोई बात हुई, कि फिक्सिंग करके सम्मान राशि लौटा दी और साहित्य जगत में फ़ोकट की वाहवाही बटोर ली। कोई हमारे त्याग को भी आकर देखे। हमें जिस व्यक्ति ने कवि सम्मेलन दिलवाया, उसे उसका हिस्सा ईमानदारी से दिया। हमें किसी संस्था ने कोई सम्मान दिया, तो हमने सम्मान राशि का लालच किए बिना उस सम्मान समारोह का पूरा खर्चा भी स्वयं ही उठाया। हमारी महानता की ओर साहित्य जगत का ध्यान जाने क्यों नहीं गया। जाता भी कैसे हम छोटे लोग जो ठहरे। वे बड़े लोग हैं। उनकी बातें भी बड़ी होंगी। यदि वे छींकें तो भी साहित्य जगत चिंतित हो उठेगा और हम यदि...” इससे पहले, कि मित्र महोदय कुछ अशुभ बोलते हमने उन्हें बीच में ही टोककर कहा, “देखिए मैं उन वरिष्ठ कवि को भली-भाँति जानता हूँ। वे बहुत ही नेक हृदय के व्यक्ति हैं। माना कि उन्होंने ऐसा कुछ किया भी हो, फिर भी बड़ी बात यह है कि वे अपनी रचनाएं स्वयं अपने मस्तिष्क से सोचकर लिखते हैं न कि आपकी तरह...” मेरी पूरी होने से पहले ही कवि मित्र अपने दाँत पीसते हुए बोले, “आप क्या कहना चाहते हैं। मैं अच्छी तरह समझ रहा हूँ। इससे पहले मैं अपनी नीचता पर उतर आऊँ, आप यहाँ से निकल लें तो ही आपकी भलाई है।” और मैंने उस बड़े आदमी की बड़ी बातें सुनने की बजाय वहाँ से खिसक लेना ही उचित समझा।
रचनाकार: सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत
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बहुत ही सार्थक प्रस्तुतीकरण,आभार.
ReplyDeleteशुक्रिया राजेन्द्र जी...
Deleteबहुत ही सुन्दर .....
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