उन्मुक्तता
क्यों मिल गयी संतुष्टि
उन्मुक्त उड़ान भरने की
जो रौंध देते हो पग में
उसे रोते , कराहते
फिर भी मूर्त बन
सहन करना मज़बूरी है
क्या कोई सह पाता है
रौंदा जाना ???
वो हवा जो गिरा देती है
टहनियों से उन पत्तियों को
जो बिखर जाती हैं यहाँ वहाँ
और तुम्हारे द्वारा रौंधा जाना
स्वीकार नहीं उन्हें
तकलीफ होती है
क्या खुश होता है कोई
रौंधे जाने से ??
शायद नहीं
बस सहती हैं और
वो तल्लीनता तुम्हारी
ओह याद नहीं अब तुम्हें
भेदती है अब वो छुअन
जो कभी मदमुग्ध करती
तुम्हारी ऊब से खुद को निकालती
अब प्रतीक्षा - रत हैं वो
खुद को पहचाने जाने का
टूटकर भी
खुशहाल जीवन बिताने का
क्या जीने दोगे तुम उन्हें
उस छत के नीचे अधिकार से
उनके स्वाभिमान से
या रौंधते रहोगे हमेशा !!!
अपने अहंकार से
इस पुरुषवादी समाज में
आखिर कब मिल पायेगी
उन्हें उन्मुक्तता ???
रचनाकार: सुश्री दीप्ति शर्मा
आगरा, उत्तर प्रदेश