इसकी खुरदुरी हथेलियाँ
बताती है कि
यह एक कामगार है !
कामगार सृजनहार होता है
इसकी हथेली में कैद हैं
चमकीली सीपियाँ
कही यह रचनाकार तो नहीं ?
रोज-रोज गढ़ता है नया
फिर उसे मिटाता है !
मिट्टी को मिटटी में मिलाता है
कही यह कुम्हार तो नहीं ?
इसकी हथेली की
मोटी-मोटी लकीरें
लोहे की छड जैसी
हो गयी हैं
लोहा लोहे को काटता है
यह भी काटेगा
सदियों से जकड़ी जंजीरें
कही यह लुहार तो नहीं ?
रुखी-सूखी हथेलियों से
उठायी बोझों की टोकरियाँ
भूख की आग से जल रही हैं
पेट की आंतडियां
सिकुड़ कर हो गयी
जैसे गली संकरी
चराते हुए बकरियां
दीमक ने खा ली है पसलियाँ
कही यह इंसान तो नहीं ?
रचनाकार: डॉ. सरोज गुप्ता
वसंत कुंज, दिल्ली