व्यंग्य: ब से...
आज ए बी सी डी की कैद से निकलकर ओलम पढ़ने का मन कर रहा है. आप भी मेरे साथ इस कैद से बाहर आइये न. देखिये अपनी चीज में जो अपनापन होता है, वह भला विदेशी में कहाँ. अच्छा यह बताइए कि आपको ओलम में कौन सा अक्षर सबसे अधिक भाता है. ओहो फिर वही जिद, कि शुरुआत मुझसे हो. कभी तो मौका दिया करें, कि शुरुआत आपसे भी हो. खैर आपकी जिद टालने का न तो कभी मन होता है और न कभी साहस. देखिये वैसे तो मुझे पूरी ओलम ही प्रिय है, लेकिन न जाने क्यों ब अक्षर मुझे बहुत आकर्षित करता है. पारंपरिक ओलम में ब से बकरा होता है, लेकिन समय बदलने के साथ-साथ जीवन के अर्थ बदलते जा रहे हैं. जब संसार अपने आपको समय के अनुसार ढाल रहा है, तो हमें भी अक्षरों के साथ कुछ नया प्रयोग करने का साहस तो करना ही चाहिए. अब देखिये ब एक शब्द होता है बड़ा. जो बड़ा होता है वो असल में बड़ा होता है या फिर नहीं यह एक शोध का विषय है, क्योंकि जो बड़े होते हैं, वे स्वयं को बड़ा नहीं मानते और जो बड़े नहीं होते वे स्वयंभू बड़े बन जाते हैं. साहित्यिक जगत में ऐसे बड़े लोग थोक के भाव में मिलते हैं. हालाँकि आनेवाला समय अपने आप बता देता है, कि वे वास्तव में बड़े थे अथवा स्वयं ही बड़े बनकर अभिमान से तनकर खड़े थे. ब से बरगद भी होता है. बरगद की विशेषता होती है, कि वह अपने विकास को ही महत्व देता है. उसकी छाया में रहने वाले पौधे बेचारे पौधे से वृक्ष बनने की चाहत में समाप्त हो जाते हैं. साहित्यिक बरगदों ने अपने स्वार्थ के लिए न जाने कितने पौधों को विकसित होने से पहले ही अपनी शोषक छाया से बर्बाद कर दिया होगा. ऐसे बरगद जब तक रहते हैं छोटे पौधे अपने आपको किसी प्रकार से आस्तित्व में बचाए रखने के लिए संघर्ष करते रहते हैं और सत्यनारायण की कथा अथवा कलमा पढ़कर ऊपरवाले से कामना करते रहते हैं, कि कोई ऐसी अच्छी घड़ी आए और ये बरगद धड़ाम से टूटकर नीचे गिरें, ताकि वे बेचारे पौधे अपने पौधेपन से मुक्ति पाकर वृक्षपन का आनंद उठा सकें. ब से बंज़र शब्द भी होता है. अं की मात्रा की चिंता किए बिना ध्यान से इस शब्द पर विचार करें तो यह ब से बहुत ही उपयुक्त शब्द है. इस शब्द का प्रयोग लोग अपने-अपने हिसाब से करते हैं. किसान के लिए बंजर शब्द ज़मीन के होता है. कुछ दुष्ट बिन संतान के दम्पति को इस शब्द के प्रयोग से आहत करते हैं, किंतु बंजर नामक इस विशेष शब्द को अपन उन महान लेखकों के करेंगे जो मस्तिष्क से अनुपजाऊ अर्थात बंजर हो चुके हैं. कहते हैं कि वे पहले उपजाऊ थे और लेखन की फसल नियमित तौर पर काटते रहते थे. उन्होंने अपने लेखन की इतनी पैदावार की, कि बेचारे मस्तिष्क से बंजर हो गये और अब दूसरे लेखकों की रचनाओं से माल उड़ाकर अपना गुज़ारा करने लगे. ऐसा भी हो सकता है, कि वे लेखन जगत में प्रवेश करने से पहले ही बंजर हों और इधर-उधर से चोरी-चकारी करके रचनारूपी अनाज का भंडारण करते रहे हों. ऐसे बंजर लेखक युवा लेखकों की रचनाओं पर पैनी नज़र रखते हैं और उनकी रचनाओं के अंजर-पंजर ढीले करके एक नई रचना लिख डालते हैं और झूठी वाहवाही के मंज़र देखते हैं. फिल्म जगत में तो ऐसे बंजर लेखकों की भरमार है और वहाँ नए लेखक अपना गुज़ारा चलाने के लिए अपनी उगी-उगाई फसल इन बंजरों को सौंप देते हैं. नए लेखकों को संघर्ष का करने के लिए कुछ धन मिल जाता है और बंजर लेखकों को बंजर न दिखने के लिए रचनारुपी संतान. इन्हीं विचारों को मस्तिष्क की भट्टी में उबालते हुए एक मकान के बगल से निकल रहा था, कि एक पिता को अपने बच्चे को ओलम सिखाते हुए देखा. वह ब शब्द पर आया और बोला ब से बकरा, तो यह सुनकर मन हुआ कि उसके पास जाऊँ और उसके कानों में जोर से चीखकर उससे बोलूँ, कि ब से बकरा नहीं ब से होता है बंजर.
रचनाकार: सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत
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बखान अच्छा लगा .....
ReplyDeleteआपके बज्र होने का अहसास हुआ ....
बगुला भगत से पाला पड़ा दिख रहा ...
शुभकामनायें !!
सशक्त लेख
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