मेरा और श्री पंकज त्रिवेदी जी का परिचय मात्र एक साल पुराना है । 'नव्या' से प्रारम्भ हुई और 'नव्या' पर ही ख़त्म हो गया। मैंने कभी भी किसी को अपनी फ्रेंड लिष्ट से नही निकाला और ना ही कभी जोड़ा । ये जोड़-तोड़ की आदत तो त्रिवेदी जी की है ... । प्रिंट पत्रिका निकलना आसान नही होता बहुत आर्थिक बल की जरुरत होती है । जाहिर सी बात है पैसा घर से ही लगाने थे । पार्टनर होने के नाते हम दोनों ने ही 50%, 50% का जिम्मा उठाया । अगर हम पार्टनर है तो निर्णय भी हम दोनों के सहमती से होने चाहिए थे । लेकिन पिछले 6 महीने में सरे निर्णय त्रिवेदी जी के रहे । पूछने पर नव्या के हित में कह कर टाला जाने लगा । धीरे धीरे नव्या से मुझे निकाले जाने की साजिश आकार लेने लगी । 'अहिसास' द्वारा लिए गए नासिक के किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम की खबर 'नव्या' इपत्रिका में नही प्रकाशित होती । पूछे जाने पर .. भूल गया जैसे जवाब मिलता । 'नव्या' के अन्य संगी-साथियों को भी इसी प्रकार से निकाला गया था । इसका सीधा सा यही मतलब निकलता है, कि श्री पंकज त्रिवेदी 'नव्या' के नाम से केवल खुद को महिमामंडित कर रहे थे । बिना ये सोचे की उन्होंने जिनके कंधो पर अपना पैर धरा है उनपर बोझ पड़ रहा है । बिना किसी कागजी कार्यवाही के, बिना किसी पार्टनरशिप की डील किये केवल शाब्दिक विश्वास पर ये सब चलता रहा । लेकिन जब मेरा विश्वास डगमगाने लगा, मैंने लिखित पेपर बनाने की जिद की । पत्रिका को रजिस्टर करने की बात कही ... त्रिवेदी जी ने अपने नाम से रजिस्ट्रेशन फार्म भरा । ये जायज भी था .. और मुझे कोई आपति नहीं थी । सोच यही थी की पार्टनरशिप डील तो है । अब अगर मै किसी और नाम से पत्रिका का रजिस्ट्रेशन कराती तो क्या होता ...एक झूठे और मक्कार इंसान को फिर शय मिल जाती । इसलिए मैंने 'नव्या' का नाम ही सही समझा । त्रिवेदी जी की तिलमिलाहट तो बस इतनी है कि उनके पास कोई हक़ नहीं रहा 'नव्या' का । अब अगर वाकई 'नव्या' के हित की उन्हें इतनी ही चिंता है तो 'नव्या' का सह सम्पादक पद मै उन्हें दे सकती हूँ । अगर मैं उनके नाम से रजिस्टर 'नव्या' में काम कर सकती थी और उनकी सहसंपादक बन सकती थी तो वह क्यों नहीं? अब रही गुडविल की बात, तो जहां साथ काम शुरू किया वहाँ गुडविल अकेले त्रिवेदी जी का कैसे हो सकता है? देश भर में कार्यक्रम तो 'अहिसास' की और से ही आयोजित हो रहे थे । तो गुडविल अकेली नव्या का कैसे हुआ ? अब अगर आगे कोई व्यक्ति त्रिवेदी जी से गठबंधन करना चाहे तो पूरी तौर पर क़ानूनी कार्यवाही पूर्ण करे । क्यों की त्रिवेदी जी कहते कुछ है और करते कुछ है ॥
शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteअपनी इगो को ताक पर रख कर पत्रिका चलाइए।
शुक्रिया डॉ स्वरुपचन्द्र शाश्त्री मयंक जी ....
Deleteसाझा काम में दोनों की सहमती आवश्यक है अहम् नहीं
ReplyDeletelatest postउड़ान
teeno kist eksath"अहम् का गुलाम "
याहा अहम् नही था .... मुझे तो साजिश ही नजर आई ...!
DeleteSumit ji ,pehle to sab kaam written mein hona chahiye partenership mein aur dono ki sahmati to jaruri hai hi ise milkar suljhaiye aur iske pathakon ko pareshani nahi honi chahiye
ReplyDeleteसरिता भाटिया जी ... पाठको को कोई परेशानी नही होगी .... 'नव्या' अब त्रेमासिक नही मासिक पत्रिका के रूप में आप पाठको तक पहुचेगी ... धन्यवाद इस स्नहे के लिए
Deleteयह प्रविष्टि कल के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग विर्क जी ... बहुत आभार आप का
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