कीमियागर (बाल कहानी)
पता नहीं कहाँ से मिली थी उसको वह किताब ? एकदम पुरानी जर्जर सी |कहता था कि एक फ़कीर जा रहा था प्यासा मैंने उसे पानी पिलाया तो खुश हो कर उसने मुझे ये किताब दी |
यह किताब थी कीमिया पर | कीमिया यानि सोना बनाने कि विधि | इस किताब में ऐसे प्राचीन नुस्खे लिखे थे जिससे अन्य धातुओं को सोने में बदला जा सकता था | यह नुस्खे बड़े ही रहस्यपूर्ण थे | आसानी से समझना संभव नहीं था लेकिन जब से उसे यह किताब मिली थी उसपर सोना बनाने कि धुन ही सवार थी | सरे कम-काज छोड़ कर वह तरह तरह के प्रयोग किया करता था | खाना खाने कि भी उसे सुध नहीं रहती थी |
वैसे उसका नाम तो दीनू था लेकिन लोग उसे कीमियागर ही कहते थे | यह नाम भी उसने किताब से पढ़कर बताया था | उसमे लिखा था कि जो कीमिया का प्रयोग यानि कीमियागिरी करते है उन्हें कीमियागर कहा जाता है | दीनू दिन भर सोना बनाने में उल्खा रहता था | हालांकि उसे किताब के सूत्र बिलकुल भी समझ नहीं आते थे | दीनू की इस जिद्द से उसके पिता जी बहुत परेशान थे | गाँव वाले उसके निठल्लेपन पर हँसते थे | उसके वृद्ध पिता गरीब किसान थे | माँ बहुत पहले ही संसार से चली गयीं | पिताजी दिन भर खेतों पर मेहनत करते तब जाकर दो जून कि रोटी जूता पते थे | लेकिन दीनू था कि थके हारे घर आये पिताजी का भोजन बनाने में भी हाथ न बंटाता |बस लगा रहता था कीमियागिरी मे पिताजी कोई कम कहते तो झल्ला उठता | वह अमीर बनना चाहता था खूब सारा सोना बना कर |
गेहूं कि फसल पक चुकी थी | अब कटाई की बारी थी | अचानक ही दीनू के पिता जी बीमार पड़ गए | जब उन्होंने दीनू से कटाई के लिए कहा तो वह पिताजी समझते हुए बोला, “इस घास का मूल्य तो कुछ भी नहीं है |मई सोना बनाकर खूब अमीर बनूँगा |”
उसके पिताजी समझाना चाहते थे कि यह अन्न का अपमान है लेकिन वह तब तक वहां से जा चूका था |
पिताजी कि बीमारी ठीक नहीं हो पा रही थी | न ही वह कम पर जा पा रहे थे | धीरे-धीरे घर पर खाने का सारा सामान खत्म हो गया | वैद्य जी से दवाई लेन के भी पैसे नहीं थे | उसदिन घर में चूल्हा भी नहीं जला मज़बूरी में दीनू ने फसल कि कटाई की और बेचने कि सोचने लगा | उसने सुना था कि पड़ोस वाले राज्य में अकाल पड़ा है | उसने वाही जा कर फसल बेचने का निर्णय लिया |
दीनू जब वहां पहुंचा तो स्तब्ध रह गया | चकित सा कुछ देर तक वह वहां का दृश्य देखता रहा | भूख से व्यकुल लोगों की तड़प देखकर उसकी आखें भर आई | निर्धनों कि बात ही क्या करनी धनी लोग दोगुने-चौगुने दाम देकर भी अन्न कि भीख मांग रहे थे | एक बहुत धनी व्यक्ति ने तो सोने की मोहरों से भरी थैली देकर दीनू का सारा गेहूं लेना चाहा | दीनू ने मोंहरें स्वीकार नहीं की और सारा गेहूं गरीबों को उचित दामों पर घर लौट चला |
रस्ते भर वो सोचता रहा कि जिसको वह घास समझता था वह अन्न तो अनमोल है | सोना क्या है अन्न कि तुलना में ? कुछ भी नहीं | सोना बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण अन्न उपजाना है | अन्न जीवन कि जरुरत है | सोना बहुमूल्य हो सकता है लेकिन अन्न अमूल्य है |
घर पहुँचकर दीनू ने वहां का सारा हाल पिताजी को कह सुनाया | अपनी भूल स्वीकार कर माफ़ी भी मांगी | इसके बाद दीनू कीमिया की किताब लेकर घर से बाहर जाने लगा तो पिताजी ने पूछा, “कहाँ जा रहे हो दीनू ?”
“यह बेकार किताब नदी में फेंकने |”
दीनू ने मुकुराते हुए उत्तर दिया | उसकी बात सुनकर पिताजी ने उसे समझते हुए कहा , “ज्ञान कोई भी हो बेकार नहीं होता | मेरी मानो तो ये किताब राजा को दे दो | जानकर लोग इस ज्ञान को समझने कि कोशिश करेंगे |”
दीनू ने पिताजी कि बात को गंभीरता से लिया और वह किताब राजा को जाकर दे दी | सचमुच राजा ऐसी दुर्लभ पुस्तक पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ | उसने ढेरों पुरुस्कार देकर दीनू को खुशी-खुशी विदा किया |
रचनाकार: श्री आशीष शुक्ला
कानपुर, उत्तर प्रदेश