प्रिय ! कुछ अव्यक्त पीड़ा 
                                              
                                            
                                                तुम समझ पाते 
                                              
                                            
                                                यदि तुमसे कह दूँ 
                                              
                                            
                                                ये मेरा प्रेम न होगा 
                                              
                                            
                                                अन्तर्मन कर रहा यह
                                              
                                            
                                                सस्वर करुण पुकार 
                                              
                                            
                                                तुम से छिपा कर कुछ 
                                              
                                            
                                                जख्म सी लिए हैं कुछ 
                                              
                                            
                                                अभी भी बाकी है 
                                              
                                            
                                                स्नेह मरहम रख देते 
                                              
                                            
                                                उन जख्मों पर 
                                              
                                            
                                                सपनों को सँजो लेते
                                              
                                            
                                                मिल कर बुने थे जो 
                                              
                                            
                                                बनाने को नवनीड़ 
                                              
                                            
                                                सुनीड़ दुर्लभ सा 
                                              
                                            
                                                मांग लूँ तुमसे ये
                                              
                                            
                                                मेरा प्रेम न होगा
                                              
                                            
                                                 प्रिय ! कुछ अव्यकत पीड़ा। 
                                              
                                              
                                                अन्नपूर्णा बाजपेई 
                                              
                                              
                                              
                                                कानपुर, उ. प्र.