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कल रात कि बासी रोटी को ,
आज मजे से खा रहा हूँ मैं ,
कल एक घर बना के आया था ,
आज फिर बनाने जा रहा हूँ मैं ,
एक लोटा पानी पीकर ,
अपनी भूख मिटा रहा हूँ मैं ,
गम जो भी मन मैं था मेरे,
उसको भुला रहा हूँ मैं,
मजदूर कि जो जिंदगी है
उसको निभा रहा हूँ मैं
अपनी मेहनत की रोटी
को इज्जत से खा रहा हूँ मैं ,
मंदिर बनाये मस्जिद बनायें ,
और मैंने कितने ही घर बनायें ,
फिर भी गोलियों का शिकार उन्होंने ,
मुझको और मेरे परिवार ही बनाये ,
देश के हर रस्ते ,हर गली ,हर कूंचे में
तुमको बस एक मैं ही मैं दिखूंगा ,
और जब कोई ऊँची इमारत से गिरेगा ,
उसमें भी केवल तुमको मैं ही मिलूंगा ,
संजय कुमार गिरि
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दिल्ली
चित्र: गूगल से साभार