आज हम विकसित समाज में रह रहें है.जहाँ हम अपनी परम्परा और आदर्शों को लेकर आगे बढ़ रहे है.आज हम अपनी जीवन शैली को आज के अनुरूप ढालने का प्रयास कर रहे है.पर क्या इस प्रयास में हम अपनी पहचान तो नहीं खो रहे है. हम तो अपने बड़ों की बताई बातों को सम्मान देते है.उनके अनुसार आगे बढते है, समाज में नारी का ओहदा सबसे ऊँचा मानते है. आज की नारी पुरुषप्रधान समाज में पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है.लेकिन इस भाग दौड में हम कहीं कुछ पीछे छोड़ते जा रहे है क्या हम कभी उस पर गौर करेंगे ?
ऐसा क्या है जो प्रगति के मायने बदल रहा है?प्रगति से तो देश, समाज, की बदलती तस्वीर सामने आती है.आमतौर पर हम अपने आसपास के माहौल से प्रभावित होते है.और अपनी सफलता के लिए सभी के सहयोग को सर्वोपरि मानते है.आज के समय में प्रतियोगिता का समय है.जहाँ हर कोई दूसरे से आगे निकलने के लिए हर तरह के प्रयास करता है.इस माहौल में विज्ञापनों का बोलबाला है.जो हमें वर्तमान की एक नयी परिभाषा समझाते है, आज विज्ञापन उत्पाद के अनुसार नहीं होते, इनमे श्रेष्ठता की जंग ही दिखाई देती है जिसमे केवल आगे निकलने की धुन सवार है. .विज्ञापन में सादगी का स्वरुप कहीं खोता जा रहा है.विज्ञापन पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण करनेवाले ज्यादा लगने लगे है.क्योंकि कहीं न कही इनमे औरत को एक अश्लीलता प्रदर्शन का जरिया बनाया जा रहा है. आज आप टेलिविज़न के किसी भी विज्ञापनों को देखें तो पता चलता है कि उनमें प्रचार से ज्यादा अश्लीलता ने अपना स्थान पा लिया है जिस पर किसी को भी एतराज़ नहीं न ही कोई शिकायत है.आप किसी भी उत्पाद का विज्ञापन लेले चाहे फिर वो नेपकिन का विज्ञापन हो,परफ्यूम का हो, साबुन का हो, क्रीम का,शैम्पू का,कोल्ड ड्रिंक का, सूटिंग-शर्टिंग का, कॉस्मेटिक्स के विज्ञापन हो सभी नारी की अस्मिता पर सवाल उठाते नज़र आ रहे है.क्या हम इस तरह की बेइजती इसी तरह होते रहने देंगे या इस लिए कदम उठाएंगे क्योंकि इन विज्ञापनों में नारी के स्वरुप को देखकर कम से कम इस बात पर यकीं नहीं होता कि हमारे देश में नारी को देवी का दर्ज़ा प्राप्त है, देवी को तो हम कम से कम इस तरह के स्वरुप में नहीं पूजते? क्या हम अपने मूल्यों और आदर्शों के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? क्या हम अपनी बहिन,बेटियों को वो समाज, वो माहौल दे रहे है जो उन्हें मिलना चाहिए?दरअसल समाज में बढ़ रही अराजकता के पीछे भी कहीं न कहीं हमारी बदली सोच ही जिम्मेदार है.आज नारी को समाज में सम्मान तो मिल रहा है पर कहीं न कहीं अभी भी पूर्ण सम्मान की इबारत लिखी जाना बाकी है,.क्या अगर विज्ञापनों में नारी का अश्लील स्वरुप नहीं होगा तो कंपनियों को उस की सही कीमत नहीं मिलेगी? मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ.अगर सही विचार और सही सोच के साथ सही मार्गदर्शन हो तो इस तरह के विज्ञापनों को बदलकर परम्परा और संस्कृति से जुड़े मूल्यों को ध्यान में रख कर विज्ञापन बन सकते है और कम्पनियाँ लाभ प्राप्ति के सारे रिकॉर्ड तोड़ सकती है तो क्यों नहीं इस और सार्थक प्रयास की शुरुआत हम करें और नारी की धूमिल होती तस्वीर में आशा और विश्वास के नए रंग भरें...............