टी.वी. चैनल कई बार दिखाते हैं "मास्टर जी फेल हो गए" ,इस कार्यक्रम में सरकारी स्कूल के अध्यापक से सामान्य ज्ञान के कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं और अक्सर कुछ अध्यापक उनका हास्यास्पद उत्तर देते दिखाई देते हैं। ये और बात है कि इन कार्यक्रमों में सिर्फ उन्ही अध्यापकों कि तस्वीरें दिखाई जाती हैं जिन्होंने गलत जवाब दिए , उनके नहीं जिन्होंने अपने उत्तरों से खबरिया चैनल के संवाददाता को हो सकता है नि:प्रश्न कर दिया हो। इस बहस में न जाते हुए कि कौन सही है कौन गलत एक अध्यापक होने के नाते हमारी जिम्मेदारी बनती है कि सबसे पहले इस विषय पर गम्भीरता पूर्वक विचार करें कि सरकारी अध्यापक की इस दशा के लिए जिम्मेदार कौन है ?
चयन से ही प्रारम्भ करें तो अध्यापक की भर्ती ही अक्सर विवादों से घिरी होती है। हाई स्कूल, इंटरमीडिएट और स्नातक के प्राप्त अंकों के आधार पर बनी मेरिट अक्सर कुछ अयोग्य लोगों को चयनित करवा देती है। सरकारी नौकरी पा लेने के बाद एक निश्चिंतता जो मन मष्तिष्क पर सवार हो जाती है वो भी कई बार ज्ञान को अपडेट करने से रोक लेती है शिक्षक को. अध्यापक भी जानता है कि अब नौकरी कि सुरक्षा की गारंटी मिल चुकी है लापरवाही भी उसका कुछ नहीं बिगड़ सकती क्योंकि सरकारी विद्यालयों में न तथाकथित नेताओं के बच्चे पढ़ते हैं और न ही नौकरशाहो के। जिनके पढ़ते हैं उन्हें अव्वल तो चिंता ही नहीं है कि बच्चे पढ़ भी रहे हैं या नहीं अगर चिंता भी है तो उसके विरोध का कोई मतलब भी है नहीं। समाज सम्मानित व्यक्तियों बच्चे तो महँगी फीस वाले विद्यालय में पढ़ते हैं। ये और बात है कि इन महँगी फीस वाले निजी विद्यालयों में पढ़ाने वाले अधिकांश शिक्षक सरकारी विद्यालयों में नौकरी पाने के लिए आवेदन करते हैं और कम अंक के कारण नौकरी से वंचित रह जाते हैं। अब ऐसे में शिक्षकों की चयन प्रणाली पर संदेह होने लगता है और सरकार है कि न जाने क्यों चयन कि यही प्रणाली अपनाये हुए है।तो यह तो कहा जा सकता है कि सरकारी अध्यापकों के चयन की प्रणाली फेल हुई है वो फेल हुए हैं जिन्होंने इस चयन प्रणाली को लागू किया किया है। मास्टर जी फेल नही हुए। अब बात करें कार्य स्थल की सरकारी स्कूल अधिकतर देहातों में हैं। इनमे नक्सल प्रभावित इलाके दुर्गम इलाके और दस्यु प्रभावित इलाके भी हैं। मैं ऐसे कई अध्यापकों को जानता हूँ जिनका अपहरण हो गया था और फिरौती की एक बड़ी धनराशि देकर छूट कर आये थे। खबरिया चैनल कभी यह नहीं दिखाते कि कि दिल्ली पब्लिक स्कूल जैसे निजी विद्यालय इन देहातों और दुर्गम इलाकों में क्यों नहीं हैं? अगर ये विद्यालय नगरों और महानगरों में सरकारी विद्यालयों कि शिक्षा के खिलाफ एक षड़यंत्र चला कर खुद को बेहतर साबित करने का प्रयास करते हैं। कई बार सरकारी मशीनरी भी सहयोग करती है। अगर ये बेहतर हैं तो सरकार को चाहिए था कि इन्हे किसी महानगर में अपनी शाखा प्रारम्भ होने से पहले एक शर्त इनके सामने रखी जाती कि अपनी गुणवत्ता पूर्ण सेवा प्रदान करने वाली एक शाखा ये सुदूर देहातों में भी लगाएंगे। क्योंकि अगर ये बेहतर हैं तो देहाती बच्चों को भी हक़ है इनकी अच्छी सेवा लेने का पर देहातों में बिजनेस नही है। और शिक्षा को इन शिक्षा माफियाओं ने धंधा बना दिया है।
अब सरकारी अध्यापकों के द्वारा किये जाने वाले कार्यों को भी लिया जाये। कहने को तो शिक्षा अधिकार क़ानून लागू है। शिक्षक से अध्यापन के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं लिया जा सकता परन्तु सच्चाई इस से बिलकुल अलग है. कहा तो यह भी जा सकता है कि ऐसा कोई भी कार्य जिसे करने के लिए कई कार्मिकों कि आवश्यकता होती है वह सारे सरकारी कार्य सरकारी अध्यापकों से ही कराये जाते हैं। चाहे स्वास्थ विभाग का पोलिओ उन्मूलन कार्यक्रम हो या कोई सरकारी सर्वे। यहाँ तक कि कुछ गैर सरकारी संगठनो जैसे कि शिव नाडर फाउन्डेसन का विद्या ज्ञान हो या भारत स्काउट गाइड इनका प्रचार प्रसार भी सरकारी अध्यापक ही करता है जिस के लिए उसे बाकायदा आदेश अपने उच्चाधिकारियों से प्राप्त होते हैं।
अब बात की जाए उन विद्यार्थियों की जिनके आधार पर गुरु जी को फेल हैं मीडिआ वाले। गाँव में अगर १०० विद्यार्थी हैं। तो उनमे से ७० जो कि पढ़े-लिखे परिवारों से थे पहुँच गए निजी विद्यालयों में उनका दाखिला प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करने पर हुआ होगा। उनके माता पिता को भी एक परीक्षा से गुजरना पड़ा होगा कई विद्यालयों में। और ये माता पिता उस बच्चे को विद्यालय द्वारा दी गयी लिस्ट के अनुसार समस्त प्रकार की अध्यन सामग्री उपलब्ध कराएँगे। दूसरी तरफ इन बच्चो से कम आई क्यू वाले बच्चे होंगे कम आई क्यू इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इनका आई क्यू टेस्ट के बिना ही दाखिला हुआ। इन बालकों के अभिभावकों के पास इतना धन नहीं कि वो इन्हे वो सारी सुविधाएँ दे पाये जो धनवानो के बालकों को प्राप्त हो रही हैं। वहाँ स्मार्ट क्लासेस हैं.,विद्यार्थियों कि संख्या के अनुसार शिक्षक हैं और यहाँ सरकारी विद्यालयों में हो सकता है कि २०० बालकों के लिए १ ही शिक्षक हो जो स्वयं ही विद्यालय का चपरासी भी होता है सफाई कर्मी भी ,,रसोइयों से मिड डे मील बनवाने वाला मुख्य रसोइया भी. पूरे गाँव के बच्चों को पोलिओ कि दवा पिलाने वाला स्वस्थ कर्मी भी होता है और साथ ही उस गाँव के वोट बनाने वाला चुनाव आयोग का कर्मी भी और इन सबके बीच वह शिक्षा प्रदान करने वाला शिक्षक भी। क्या अब भी कहा जा सकता है कि मास्टर फेल हुआ है। अगर फेल ही मानना है तो शिक्षकों के चयन की सरकारी प्रणाली सरकारी शिक्षा नीतियाँ वह वातावरण जहा शिक्षक काम करता है को मानिये। सरकारी मास्टर तो इन सारी विसम परिस्थितियों में भी शिक्षा की अलख जगा रहा है उनके बीच जो शिक्षा का महत्व नहीं जानते। मास्टर कभी फेल नहीं होता।
रामजन्म सिंह
इटावा, उ.प्र.