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हे करवा चौथ के चाँद
तू तो चमकता है
बस एक रोज़
तुझसे कहीं
लाख बेहतर है चाँद मेरा
जो हर पल रहता है
मेरे दिल के करीब
शीतलता देता है
मेरे मन को
एक रूहानी एहसास
जो दिला जाता है
तेरा क्या
तू तो भँवरा है
जो हर घर के
आँगन में मँडराता है
मेरा चाँद तो
बहुत जुदा है तुझसे
हर रोज़ सिर्फ
मेरी रातें चमकाता है
मेरे तन को
अपनी दूधिया रौशनी से
और खूबसूरत बनाता है
हे करवा चौथ के चाँद
मैं भला क्यूँ चाहूँ तुझे
मेरी चाहत तो मेरे पिया हैं
मेरी हर रात मेरे पी के साथ
एक करवा चौथ की तरह है
हर रोज़ मेरा समर्पण है
मेरे पी के लिए
ये तन मन तो क्या
जीवन का अर्पण है
मेरे पी के लिए
मैं मदहोश सी
उनकी आँखों में खोकर
उनके आलिंगन में
खुद को छिपाकर
हर पल बस ये
कहती हूँ उनसे
पिया तुम मेरे
मैं बस तुम्हारी
हे करवा चौथ के चाँद
तू मुझसे कहीं नाराज़ तो नहीं
मैं तो कुछ भी नहीं
बस अपने चाँद की दीवानी हूँ
मेरे दिल में वो
ऐसे समाये जाते हैं
जैसे कि धड़कनों से
गीत गुनगुनाये जाते हैं
मेरी पलकों पे
उनके प्यार का साया है
फिर क्यूँ मैं पलकें उठाके
देखूँ तुंझको
पर फिर भी हर बार की तरह
आज फिर ये आजमाना है
आज की रात फिर तुझे
अपने चाँद के आगे झुकाना है
हे करवा चौथ के चाँद
फिर भी तुझे मैं पूजूँ आज
अपने पी के साथ
इसलिए नहीं
कि तू उनसे सुंदर है
मुझे तो डर है इसका
तू जो न निकला
अगले बरस
फिर किसे चिढ़ाऊंगी मैं
क्यूंकि जग में दूजी
कोई उपमा नहीं
या तो तू
या तुझसे बढ़के
सिर्फ मेरे पिया.
रचनाकार- श्री मनीष गुप्ता
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निवास- बुलंदशहर, उ.प्र.