कविता: बेजान
यह सब कहने की बातें हैं
हुई औरत बलवान
गली,मोहल्ले,चौराहों पर
लुट रही वह सरेआम
युगों युगों से होता आया
आज भी वही सब होता है
औरत पर बस ज़ुल्म-ओ-सितम की
लम्बी है दास्तान
नेताओं के भाषण से
सुधरेगी न हालत
कानून की देवी अंधी है
बेबस अपनी अदालत
नोट वोट को राजनीती में
नारी शक्ति महान
नारी पर अपनें ही घर में
होता अत्याचार
दहेज़ की आग में आज भी जलती
कन्या जन्म पर सबसे डरती
ससुराल पक्ष के ताने सुनती
कितनी बेबस लाचार
समाज की सोच पे पर्दा है
फर्क औरत पे पड़ता है
जब तक सोच न बदलोगे
रहेगी वह बेजान
रचनाकार - श्रीमति कुमुद शर्मा