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Monday, January 28, 2013
शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या- 2
कहानी: शक की आग
"बाय माँ "......अपने छोटे-छोटे हाथ हिलाता हुआ उदय ऑटो में बैठ कर स्कूल चला गया तो मैंने राहत की साँस ली .....उफ़ ! सुबह-सुबह की भागदौड को एक बार राहत सी मिलती है जब बच्चों को स्कूल भेज दिया जाता है।
उदय एक बार बाथरूम में घुस गया तो बस फिर बाहर आने का नाम ही नहीं लेता , जब तक तीन-चार बार ना चिल्लाओ। उसे कोई परवाह नहीं है कि स्कूल को देर हो जाएगी या ऑटो वाला बाहर खीझते हुए इंतज़ार करेगा। जोर से डांट लगाओ तो बोलेगा "जब मैं स्कूल जाता हूँ तभी स्कूल लगता है ".मुझे हंसी और खीझ दोनों एक साथ आती और बाहर जा कर खिसियानी हंसी से ऑटो वाले को देखती हुई उदय को रवाना कर एक लम्बा साँस लेती हूँ।
फिर थोड़े से बिखरे घर पर उचटती सी नज़र डाल कर,रसोई में जा कर एक कड़क सी चाय ले आती हूँ और आराम से अखबार पढती हूँ। मुझे राजनीती की खबरों में ज्यादा रूचि नहीं है। लेकिन अखबार में जिस पृष्ठ पर "शोक -सन्देश"छपे होतें है ,सबसे पहले वही पृष्ठ खोलती हूँ हर शोक सन्देश को गौर से पढ़ती-देखती हूँ फिर सोचती हूँ की इस के कितने बच्चे है या इसकी कितनी उम्र होगी ...कोई बेटे-पोतों वाला होता तो सोचती हूँ , "चलो अमर तो कोई भी नहीं है पर कुछ साल और जी लेता तो क्या होता।" पर कोई असमय मौत या कोई बालक होता तो मुझे लगता मैं भी उनके दुःख में शामिल हूँ और कई बार तो आँखे भी भर आती और सोचती , दुनिया में कितने दुःख है ,फिर उनके परिवार-जन के लिए हिम्मत और हौसला भी माँगती जाती और अपने आंसू पौंछती रहती हूँ। यह सब मैं अपने पति शेखर से छुपा कर ही करती थी क्यूँ की उन्हें मेरी ये आदत बहुत खराब लगती है।
आज अखबार जैसे ही हाथ में लिया तो मुख्य -पृष्ट पर एक तस्वीर पर नज़र अटक गयी जिसके नीचे लिखा था "अरुण चौपड़ा को आई. ए.एस.की परीक्षा में पूरे भारत में तीसरा स्थान मिला है" और तस्वीर में उसकी माँ उसे मिठाई खिलाती बहुत खुश दिख रही थी ....अरुण चौपड़ा की माँ पर मेरी नज़र अटक गयी 'अरे ये तो नीरू आंटी लग रही है '|फिर माँ को फोन लगाया और पूछा क्या वो नीरू आंटी ही है ...! माँ भी खुश थी बोली "मैं तुझे ही फोन करने वाली थी , आज नीरू की मेहनत सफल हो ही गयी, दोनों बेटे लायक निकले हैं। छोटा भी कुछ दिनों में इंजिनियर बन जायेगा, अच्छा है अब उसके भी सुख के दिन आ गए।"
नीरू आंटी ; गोरा रंग ,भरा-भरा मुख और दुबली सी काया वाली एक भली और सीधी-सादी सी स्त्री थी। उनका ख्याल आते ही कानो में एक आवाज़ सी गूंजती है जो वह अक्सर हमें पढ़ाते वक्त , जब कोई पढ़ते वक्त कक्षा में छात्र शोर करता, अपनी तर्जनी को होठों पर रख कर जोर से बोला करती थी "श्श्श्श च्च्च्च" ...! और सारी कक्षा में शांति सी छा जाती।
यह बात तब की बात है जब मैं सातवी में थी और नीरू आंटी 'शिक्षक-प्रशिक्षण केंद्र में पढती थी। उस केंद्र के शिक्षार्थी हमारे स्कूल में प्रेक्टिकल के तौर पर हमें पढ़ाने आया करते थे उन्ही में नीरू आंटी भी थी। वह मेरी आंटी इसलिए थी के उनके पति रमेश चौपडा और मेरे पापा एक ही महकमे में थे।वे दोनों अक्सर आया करते थे हमारे यहाँ। उनके दो बेटे थे अरुण और वरुण...! दोनों बहुत प्यारे और शरारती थे और मुझे बच्चों से लगाव बहुत था तो उनके साथ खूब खेला करती थी।
आंटी, माँ को दीदी बुलाया करती थी। दोनों कई बार गुपचुप बात करती रहती थी। मैंने कई बार आंटी को आंसू पौंछते हुए बातें करते भी देखा तो माँ से पूछा भी तो माँ ने डांट दिया के बड़ों की बातें नहीं सुना करते।
लेकिन तब मैं अपने को इंतना भी छोटा नहीं समझती थी के इंसानों के मन के भाव ना पढ़ ना पाती। मुझे रमेश अंकल की आँखों में वहशत और आंटी की आखों में एक अजीब सी दहशत नज़र आती थी। समझी बाद में , बात क्या थी आखिर !
कई बार उनको स्कूल के बाहर भी खड़ा देखा था और जब आंटी आती तो उनको साथ में ले कर चल देते। पापा को अक्सर अपने विभाग के काम सिलसिले से कई दिनों के लिए बाहर जाना पड़ता। एक बार उनके साथ रमेश अंकल भी गए ...
लगभग दस दिन बाद पापा का आना हुआ। हम सब बहुत खुश थे क्यूँ कि मेरे पापा जब भी कही जाते तो हम सब के लिए कुछ ना कुछ जरुर लाते इस बार तो उदयपुर गए थे मेरे लिए वहां से चन्दन की खुशबू वाला पेन ले कर आये तो मैं बहुत खुश थी।
अगले दिन स्कूल से आने के थोड़ी देर बाद नीरू आंटी लगभग रोती सी आयी और दीदी कहती हुई माँ के गले लग कर रो पड़ी। माँ ने मुझे आँखों से ही बाहर जाने का इशारा किया। छोटे से घरों में दीवारों के भी कान होते है और मुझे तो जानने कि उत्सुकता थी ये क्या हुआ है आज आंटी को। उनके मुहं पर काफी चोट के निशान थे।मैं भी ध्यान से सुनने लगी ...
मेरे कानो में आंटी कि आवाज़ पड़ रही थी "दीदी आज तो हद ही हो गयी जुल्म की ;इतने दिन तक जो शक की आग लिए घूम रहे थे रमेश ,अब वो उसमे जलने भी लग गए हैं। ना जाने किस ने इनके कान भर दिए कि जब वो उदयपुर टूर पर गए थे तो मैंने किसी से शादी कर ली , कभी किसी के साथ ,कभी किसी के साथ नाम जोड़ना तो पहले से ही आदत थी कल तो आते ही पीटना शुरू कर दिया और कहने लगे ,वो कौन है जिससे मैंने शादी की है...मैंने बहुत पूछा पर नहीं बताया कि किसने कान भरे हैं उनके ...!"
वो कई देर तक रोती रही ,माँ के यह कहने परकि क्या वो या मेरे पापा अंकल को समझाएं...!लेकिन डर के मारे आंटी ,माँ का हाथ पकड़ते हुए बोली "नहीं दीदी फिर तो मेरा और भी बुरा हाल हो जायेगा ,शायद यही मेरी किस्मत है किसी ने सच कहा है जिसकी बचपन में माँ मर जाती है उसका भाग्य भी रूठ ही जाता है।"और फिर से रो दी ...तब मैं, चाहे छोटी थी लेकिन मुझे भी गलत बात का विरोध करना तो आता था .मुझे बहुत हैरानी हुई थी ,आंटी तो इतनी बड़ी है क्यूँ मार खा गयी जबकि वह गलत भी नहीं थी ...!
उसके बाद आंटी ऐसे ही सहन करती रही फिर उनकी सरकारी स्कूल में नौकरी भी लग गयी अंकल ने भी वहीँ तबादला करवा लिया जहाँ आंटी की पोस्टिंग थी और पापा का भी तबादला दूसरी जगह हो गया और हमने भी वह शहर छोड़ दिया .......
कई साल बीत गए ; मैं ग्यारहवी कक्षा में आ चुकी थी। एक दिन मैं इम्तिहान की तैयारी कर रही थी सहसा दरवाजे पर दस्तक हुई तब दोपहर के लगभग दो बजे थे। दरवाज़ा खोलने पर देखा तो एक जानी पहचानी सी औरत खड़ी थी। ध्यान से देखा तो बोल पड़ी "आप नीरू आंटी ...! है ना ...!"
फिर माँ को आवाज़ दी तो वो दोनों बड़ी खुश हुई .कुछ देर बाद जब स्नेह-मिलन हो गया तो माँ ने हाल चाल पूछा तो आंटी ने मायूसी से बताया ,"रमेश जी वैसे ही हैं, उनका शक अब लाइलाज बीमारी में बदल गया है ;कभी खुद को ,कभी मुझे और कभी बच्चों को तो बहुत पीटते है। एक बार तो अरुण के बाल खींच कर ही हाथ में निकाल दिए और एक बार आँख पर मारा तो बहुत बड़ा निशान हो गया , बस आँख का बचाव हो गया।
कितने ही डॉक्टर्स को दिखाया पर कोई हल नहीं पागल-खाने में भी डाल कर देखा। उनके परिवार वाले और अब तो आस -पड़ोस के लोग भी मुझे दोषी मानते है। मैंने कितना समझाया रमेश को ;अगर मैं किसी से शादी कर ही लेती तो उसकी मार खाने को क्यूँ उसके साथ रहती। पर उसके दिमाग मैं जो शक का कीड़ा घुस गया था वो उसे और परिवार की सुख-शान्ति और खुशियों को खाए जा रहा था। "
माँ उनकी बातें सुन कर रो पड़ी पर आंटी की आँखे सूनी ही थी अब कितना रोती वो भी ,आंसुओं की भी कोई लिमिट होती होगी ख़त्म हो गए होंगे वे भी अब तक। उनकी आँखों में तो बस उनके बच्चों के भविष्य की चिंता ही थी बस।
बच्चों के बारे में पूछा तो बताया कि वे दोनों ठीक है और पढ़ाई में भी ठीक है। थोड़ी देर बाद आंटी चली गयी तो माँ ने उनके बारे में बताया कि नीरू आंटी के माँ बचपन में ही गुज़र गयी थी। पड़ोस की मुहं-बोली बड़ी माँ ने पाल कर बड़ा किया था उनको। मायके मे उनका कोई भी नहीं है और ससुराल वाले भी तभी साथ देते हैं जब पति मान-सम्मान देता है।
"तो माँ ;वो जुल्म क्यूँ सहती रही ,क्यूँ नहीं छोड़ कर चली गयी ,जब कि वो खुद अपने पैरों पर खड़ी थी,गलती भी नहीं थी उनकी और उनके परिवार वालों ने क्यूँ नहीं समझाया अंकल को ...!"मैंने कुछ हैरान और दुखी हो कर माँ से पूछा।
"अब वह क्या करती बेचारी ,अगर छोड़ कर चली जाती तो क्या दुनिया उसे जीने देती ...! उसे तो और भी कुसूरवार समझा जाता। मैंने उसे एक बार ऐसा करने को कहा भी था तो उसने मना कर दिया एक तो दुनिया की बदनामी और इंसानियत भी उसको यह करने मना कर रही थी के अगर वो भी इसे छोड़ कर चली जाएगी तो ये तो ऐसे ही मर जायेगा चाहे मन में प्यार नहीं इसके लिए फिर भी वो उसके बच्चों का पिता तो था। उसने अपनी इसे ही किस्मत मान ली थी।" माँ ने बहुत दुखी स्वर में बताया।
मुझे सुन कर बहुत दुःख हुआ सोचने लगी कब तक औरत सक्षम होते हुए भी अपने उपर लांछन सहती रहेगी, क्यूँ नहीं हिम्मत जुटा पाती .क्यूँ गलत बात का विरोध नहीं करती.क्या विवाह किसी -किसी के लिए इतनी बड़ी सजा भी होता है ...!
उनके मायके में कोई नहीं था तो उनके ससुराल के परिवार में तो महिलाएं थी क्या उनको भी आंटी का दर्द समझ नहीं आया ...? क्यूँ नहीं अंकल को समझाया कि आंटी गलत नहीं थी और कोई भी परिचित ,रिश्तेदार या मित्र किसी ने भी नहीं समझाया के आंटी बे-कसूर थी ...!
उसके बाद मै आंटी से नहीं मिली .बी .ए करने के बाद मेरी शादी हो गयी और अपनी गृहस्थी में रम गयी।फिर उड़ते -उड़ते खबर सुनी रमेश अंकल ने अपने को आग लगा कर आत्महत्या कर ली ...शक कि आग मे जलते रहने वाले शख्स को आग ने भी जल्दी ही पकड लिया होगा ...!
नीरू आंटी ने पहले भी बच्चों को माँ-बाप दोनों प्यार दिया था और अंकल के जाने के बाद भी ,उनको आगे बढ़ने का हौसला दिया .ये औरत का ही हौसला होता है जो सब कुछ सहन करके भी पर्वत की तरह हर मुश्किल से जूझती रहती है। और आज उनकी मेहनत का फल उनके सामने था उनके बड़े बेटे की कामयाबी ,उनके चेहरे से ख़ुशी झलक रही थी पर एक दर्द कि हलकी सी रेखा भी थी उनकी आँखों में।
वह जरुर अंकल का ख्याल कर रही होगी के अगर आज सब-कुछ ठीक होता तो क्या ये ख़ुशी उनकी अपनी नहीं होती ....!
सोचते-सोचते ना जाने कब मेरे भी आंसू बह चले और खोयी हुई सी बैठी रही मैं ,जब तक कि शेखर ने मेरे हाथों से अखबार ना ले लिया और बोले "आज किसकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना हो रही है ...!
"
"आज ये ख़ुशी के आंसू है किसी की मेहनत या तपस्या सफल हुई है आज"...मैंने आंसू पोंछते हुए कहा. फिर मैंने शेखर को तस्वीर दिखाते हुए सारी बात बताई तो उन्होंने भी अरुण की सफलता के पीछे आंटी का ही हाथ बताया . और कहा "बेशक आज उनकी मेहनत सफल हुई है पर जो उनके, अपने ख़ुशी के दिन थे या जिन पर उनका हक़ था वो कौन लौटाएगा ...! अपने दुःख की कहीं न कहीं स्वयं नीरू आंटी भी जिम्मेदार है और दूसरे लोग जो उनको जानते थे वो भी जिम्मेदार है उन्होंने क्यूँ नहीं समझाया उनके पति को ....! बस एक जीवन बिता ही दिया उन्होंने ."मैं भी शेखर की बातों से पूर्ण रूप से सहमत थी ....और थोड़ी ख़ुशी और भरा मन ले कर मै उठ गयी ........
रचनाकार - सुश्री उपासना सियाग
अबोहर, पंजाब
Posted by
संगीता तोमर Sangeeta Tomar at
10:20 AM
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dil ko chhutti rachna...behtareen.
ReplyDeleteaapki rachna se bas ek baat samajh me aayee, aap ek samvedansheel mahila ho.. :)
बहुत -बहुत शुक्रिया मुकेश जी
Deleterachna mai bhav behad achche hai bahut achchi rachna hai
ReplyDeleteबहुत -बहुत शुक्रिया शांति जी ...
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना है उपासना जी …
ReplyDeleteबहुत - बहुत शुक्रिया भगत सिंह जी ..
Deleteबहुत खूब.
ReplyDeleteबहुत -बहुत शुक्रिया जी
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