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Monday, March 4, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 15

जब भी गुड्डे गुड्डीओं के खेल में
अपनी गुड़िया को मैने डोली में बिठाया था
उसका हाथ बड़े प्यार से गुड्डे को थमाया था

नम हो आई थी मेरी आँखें भी
तब यह मन ना समझ पाया था 

क्यों?
उस बेजान गुड़िया के लिए तब मेरा दिल रोया था
जिसे ना मैने पाला था,ना जिसका बीज बोया था

फिर कैसे?
अधखिली कली को खिलने से पहले ही कुचल डालते हैं
अगर भूल से खिल जाए तो घृणा से उसे पालते हैं

आख़िर क्यों?
माँ को ही सहना पड़ता हमेशा अपमान है
बेटी हो या बेटा यह तो बाप का योगदान है

अगर
अब भी ना रोका गया,'भ्रूण हत्या' का यह अभियान
तो बेटा पैदा करने को कहाँ से आए? 'माँ' ओ श्रीमान

इसलिए
शादी का लड्डू जो ना खा पाए वो तरसेंगे
जब बेटी रूपी नेमत के फूल ना बरसेंगे

तब
कहाँ से लाओगे दुल्हन जो पिया मन भाए
जो हैं नखरे वाले सब कंवारे ही रह जाएँ

लो कसम
यह कलंक समाज से आज ही हटाना है
'बेटी को बचाना है',बस 'बेटी को बचाना है'

 रचनाकार: श्रीमती सरिता भाटिया


उत्तम नगर, दिल्ली 


3 comments:

  1. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)March 4, 2013 at 8:27 PM

    सरिता भाटिया जी की रचना बहुत सुन्दर है!
    मेरी ओर से बहु-बहुत शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  2. miracles worldrecordMarch 8, 2013 at 9:10 PM

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    ReplyDelete
  3. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)March 8, 2013 at 9:15 PM

    अच्छा सन्देश देती हुई सार्थक रचना!
    --
    महिला दिवस की बधाई हो!
    सरिता जी आप लिखती रहिए...आपकी लेखनी में दम है!

    ReplyDelete
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