प्यारे राष्ट्रगीत
सादर अपमानस्ते!
जानता हूँ आप इन दिनों फिर से दुखी हैं, क्योंकि कुछ दिन पहले एक बार फिर से आपका अपमान लोकतंत्र की प्रतीक संसद में एक मूर्ख इंसान द्वारा किया गया। इसके पीछे उसने अपने धर्म का सहारा लिया। यह तर्क देने से पहले वह दुष्ट यह भूल गया, कि वंदे मातरम ही वह गीत था, जिसे गाते हुए हिंदू व मुस्लिम क्रांतिकारी हँसते-हँसते फाँसी के फंदों पर झूल गये थे। देश में चले स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लोगों में जोश पैदा करने के लिए आपको गाया जाता था। धीमे-धीमे आप लोगों में बहुत लोकप्रिय हो गये। ब्रिटिश सरकार आपकी लोकप्रियता से घबरा उठी और आप पर प्रतिबंध लगाने के बारे में सोचने लगी। सन 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने आपको गाया था।
कांग्रेस अधिवेशनों के अतिरिक्त आजादी के आंदोलन के दौरान आपके प्रयोग के कई उदाहारण हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस जर्नल का प्रकाशन शुरू किया था, उसका नाम “वंदे मातरम” रखा था। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जुबान पर आखिरी शब्द “वंदे मातरम” ही थे। सन 1907 में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया, तो उसके मध्य में “वंदे मातरम” ही लिखा हुआ था। आर्य प्रिटिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस, देहरादून से सन 1921 में प्रकाशित काकोरी के शहीद पं. राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की प्रतिबंधित पुस्तक “क्रांति गीतांजलि” में पहला गीत “मातृ वंदना” वंदे मातरम ही था। लेकिन इन सब बातों से बर्क को क्या फर्क पढ़नेवाला है। उसकी आँखों पर धर्मान्धता का पर्दा जो पड़ा हुआ है। इस जैसी मानसिकता वालों ने ही स्वाधीनता संग्राम में निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी, तो वंदे मातरम के स्थान पर सन 1911 में इंग्लैंड से भारत आए जार्ज पंचम की स्तुति में रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी होगी। उसे उसके धर्म में अंग्रेजी सम्राट की स्तुति में बना गीत गाना तो जायज है, लेकिन अपनी धरती माता की स्तुति करता हुआ गीत “वंदे मातरम” करना हराम लगता है। इसमें उसका कोई दोष नहीं है, दोष हमारे कानून का जो ऐसे देश द्रोहियों को ऐसा कर्म करने को प्रोत्साहित करता है। यदि ऐसे दुष्टों को शुरुआत में ही इनकी औकात दिखा दी जाए, तो शायद ये अपनी नीच हरकतों से बाज आ सकें। यह तर्क देता है कि इस्लाम में वंदना करना नाजायज है, लेकिन जरा इस बेशरम से कोई जाकर पूछे कि क्या ये अपनी पार्टी प्रमुख के पैर छूकर आशीर्वाद नहीं लेता है, जब जनता के बीच वोटों की भीख माँगने जाता होगा तब अपना सिर नहीं झुकाता होगा, जब नमाज पढ़ता है तो अपना सिर धरती माँ पर नहीं झुकाता है, जब ये जवान होगा तब महबूब की वंदना से भरी हुई शायरी का मजा नहीं लेता होगा और अपनी माँ के आगे इसका सिर नहीं झुकता होगा। इस जैसे कुत्सित मानसिकता वाले लोगों के कारण पूरी मुस्लिम कौम बदनाम हो जाती है। मेरे एक मुस्लिम मित्र के अनुसार, “बर्क ने वन्देमातरम पढने से इंकार किया। ये खबर पढ़कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बड़े दुःख की बात है, कि हमारे मुस्लिम भाइयों को वन्दे मातरम के मायने का ही नहीं पता। जबकि इस्लाम में अपने मुल्क को मादर -ए- वतन कहा गया है। जिसका मतलब भी वन्दे मातरम ही है। हमें अपनी ज़मीन को माँ कहने में शर्म कैसी? हिन्दू भाई तो ज़मीन को सिर्फ माँ कहते हैं, लेकिन हम मुस्लिम भारत माता को असली माँ समझते हैं। हम जिंदा रहकर भी अपनी माँ की हिफाज़त करते हैं और मरने के बाद भी धरती माँ के आँचल में हमेशा के लिए सो जाते हैं, जबकि हिन्दू भाई माँ के साथ रहते ज़रूर हैं, लेकिन मरने के बाद उसकी गोद में सो नहीं सकते।“ काश ऐसे विचारों से बर्क जैसी मानसिकता वाले लोगों को कुछ सबक मिल पाता। खैर कोई गाये या न गाये लेकिन अपनी मातृ भूमि से प्रेम करने वाले आपको गाते रहे हैं, गाते हैं और गाते रहेंगे।
कांग्रेस अधिवेशनों के अतिरिक्त आजादी के आंदोलन के दौरान आपके प्रयोग के कई उदाहारण हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस जर्नल का प्रकाशन शुरू किया था, उसका नाम “वंदे मातरम” रखा था। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जुबान पर आखिरी शब्द “वंदे मातरम” ही थे। सन 1907 में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया, तो उसके मध्य में “वंदे मातरम” ही लिखा हुआ था। आर्य प्रिटिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस, देहरादून से सन 1921 में प्रकाशित काकोरी के शहीद पं. राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की प्रतिबंधित पुस्तक “क्रांति गीतांजलि” में पहला गीत “मातृ वंदना” वंदे मातरम ही था। लेकिन इन सब बातों से बर्क को क्या फर्क पढ़नेवाला है। उसकी आँखों पर धर्मान्धता का पर्दा जो पड़ा हुआ है। इस जैसी मानसिकता वालों ने ही स्वाधीनता संग्राम में निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी, तो वंदे मातरम के स्थान पर सन 1911 में इंग्लैंड से भारत आए जार्ज पंचम की स्तुति में रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी होगी। उसे उसके धर्म में अंग्रेजी सम्राट की स्तुति में बना गीत गाना तो जायज है, लेकिन अपनी धरती माता की स्तुति करता हुआ गीत “वंदे मातरम” करना हराम लगता है। इसमें उसका कोई दोष नहीं है, दोष हमारे कानून का जो ऐसे देश द्रोहियों को ऐसा कर्म करने को प्रोत्साहित करता है। यदि ऐसे दुष्टों को शुरुआत में ही इनकी औकात दिखा दी जाए, तो शायद ये अपनी नीच हरकतों से बाज आ सकें। यह तर्क देता है कि इस्लाम में वंदना करना नाजायज है, लेकिन जरा इस बेशरम से कोई जाकर पूछे कि क्या ये अपनी पार्टी प्रमुख के पैर छूकर आशीर्वाद नहीं लेता है, जब जनता के बीच वोटों की भीख माँगने जाता होगा तब अपना सिर नहीं झुकाता होगा, जब नमाज पढ़ता है तो अपना सिर धरती माँ पर नहीं झुकाता है, जब ये जवान होगा तब महबूब की वंदना से भरी हुई शायरी का मजा नहीं लेता होगा और अपनी माँ के आगे इसका सिर नहीं झुकता होगा। इस जैसे कुत्सित मानसिकता वाले लोगों के कारण पूरी मुस्लिम कौम बदनाम हो जाती है। मेरे एक मुस्लिम मित्र के अनुसार, “बर्क ने वन्देमातरम पढने से इंकार किया। ये खबर पढ़कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बड़े दुःख की बात है, कि हमारे मुस्लिम भाइयों को वन्दे मातरम के मायने का ही नहीं पता। जबकि इस्लाम में अपने मुल्क को मादर -ए- वतन कहा गया है। जिसका मतलब भी वन्दे मातरम ही है। हमें अपनी ज़मीन को माँ कहने में शर्म कैसी? हिन्दू भाई तो ज़मीन को सिर्फ माँ कहते हैं, लेकिन हम मुस्लिम भारत माता को असली माँ समझते हैं। हम जिंदा रहकर भी अपनी माँ की हिफाज़त करते हैं और मरने के बाद भी धरती माँ के आँचल में हमेशा के लिए सो जाते हैं, जबकि हिन्दू भाई माँ के साथ रहते ज़रूर हैं, लेकिन मरने के बाद उसकी गोद में सो नहीं सकते।“ काश ऐसे विचारों से बर्क जैसी मानसिकता वाले लोगों को कुछ सबक मिल पाता। खैर कोई गाये या न गाये लेकिन अपनी मातृ भूमि से प्रेम करने वाले आपको गाते रहे हैं, गाते हैं और गाते रहेंगे।
बर्क को अपनी भूल का एहसास हो इसी कामना के साथ वंदे मातरम।
आपको गाकर गौरवांवित होता
भारत माता का एक पुत्र
रचनाकार: सुमित प्रताप सिंह