वह एक अविस्मरणीय क्षण था, जब कूलर महाराज हमारे घर पधारे थे. तब मैं बचपन के सुहाने दिनों को जी रहा था और उन सुहाने दिनों को और अधिक सुहाना बनाने के लिए कूलर महाराज आ गए. घर में हम सभी टी.वी. देखने में मग्न थे , कि रिक्शेवाले ने घर के किवाड़ों को आकर पीट डाला. किवाड़ खोलते ही कूलर महाराज के दर्शन करके पूरा परिवार धन्य हो गया. गर्मी अपने पूरे भयावह रूप में विद्यमान थी. दोपहर होते-होते पंखे महोदय भी पसीना फैंकना आरंभ कर देते थे. कूलर महाराज क्या आए, जैसे हमें गर्मी नामक वीभत्स दानवी से संघर्ष करने के लिए ब्रम्हास्त्र मिल गया हो. रिक्शेवाला हमें देवदूत प्रतीत हो रहा था, जिसने इतने परिश्रम के पश्चात कूलर महाराज को हमारी कुटिया में पहुँचाने का सुकार्य किया था. घरवालों के तन-मन में विशेष ऊर्जा भर उठी थी. कूलर महाराज को भी इतना आदर-सम्मान शायद ही कहीं नसीब हुआ हो, जितना हमारे घर में उन्हें मिल रहा था. उन्हें स्नानादि करवाकर घासरूपी वस्त्रों से सुशोभित किया गया व उनके पेट को पूर्णरूप से भर दिया गया. उन्हें आरंभ करने का सौभाग्य मुझ गरीब को ही प्राप्त हुआ. जैसे ही उन्होंने अपने कठोर पंखों को हिलाकर वायु वर्षा आरंभ की, तो कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे राजस्थान से कश्मीर में पलायन हो गया हो. अब मेरे बालमन में प्रसन्नता की तरंगे उत्पन्न होने लगीं. दो-चार रोज तो मैंने अपने सभी दोस्तों से कट्टी ही कर ली और कूलर महाराज के सामने ही नतमस्तक पड़ा रहा. अब पूरा परिवार प्रसन्न रहने लगा. हम सभी कूलर महाराज के गुण गाने में मस्त रहते थे. आस-पड़ोस वालों ने भी यह सुअवसर अपने हाथ से न जाने दिया और कूलर आने की बधाई देने घर पर आ धमकने लगे व चाय-पानी करके कूलर महाराज की तारीफ़ के पुल बांधते हुए अपने-अपने घर निकलने लगे. उनके जाने के बाद हमारे पास बचते थे चाय पत्ती और चीनी के खाली होते डिब्बे और खत्म होता दूध.
खैर यह भी धीमे-धीमे कम होता गया. कूलर महाराज भी अपनी महत्ता पर अभिमान करने लगे. उन्होंने हमारे इलाके के अन्य कूलरों से चिड़िया रुपी दूतों के माध्यम से संपर्क साधा और संदेश भिजवाया कि देखो, तो अपनी कूलर जाति का घर-घर में कितना मान-सम्मान है. अपन सब तो पंखों से अति श्रेष्ठ स्थिति में हैं. उनके संदेश पर अन्य कूलरों ने प्रतिक्रिया दी, कि अभी नए-नए आए सो तुम्हें सब-कुछ हरा-हरा दिख रहा है. जरा महीने की एक तारीख तो आने दो. बिजली का बिल आते ही तुम्हारा ये आदर-सत्कार भी जाता रहेगा. गृहिणियों को बढ़ते बिल के कारण हम फूटी आँख नहीं सुहाते. जब भी उन्हें मौका मिलता है, झट से हमें बंद कर देती हैं. घर के नन्हें-मुन्ने बच्चे भी हम सबसे जल्दी ही उकता जाते हैं. वे बेचारे भी करें तो क्या करें? कूलर की साफ़-सफाई और पानी भरने की जिम्मेदारी उन्हें ही निभानी पड़ती है. स्कूल, ट्यूशन, टी.वी. देखना और खेलना कितने काम होते है. उन मासूमों के पास समय ही कहाँ बच पाता है, जो हम पर भी अपना समय खर्च करें. हमें प्रेमी-प्रेमिकाओं की नाराजगी अलग से झेलनी पड़ती है. एक-दूसरे को लुक-छिप कर देखने का उनके पास केवल खिड़की ही तो जरिया होती है. उस पर भी हमें टिका दिया जाता है. वे बेचारे मन मसोसकर रह जाते हैं और हमें दिन-रात गरियाते रहते हैं. उनकी बद्दुआओं से कभी हमारा मोटररुपी कलेजा फुंक जाता है तो कभी पंखे थम जाते हैं. सर्दी का मौसम आते ही हमें एक ओर पटक दिया जाता है और अगली गर्मी आने तक ऐसे ही बदहाली में अपना जीवन कटता है. अब तुम ही बताओ कि यह भी कोई जीवन है, कि लोगों को शीतलता प्रदान कर उनकी सेवा करो और बदले में पाओ जिल्लत और गालियाँ. हमारे कूलर महाराज जब अपने कूलर भाइयों के विचारों से परिचित हुए, तो उनका अभिमान उड़न-छू हो गया. धीमे-धीमे समय बीता और कूलर महाराज को अपने कूलर भाइयों द्वारा बताई गईं बातें सत्य प्रतीत होने लगीं. मेरी माँ ने बिजली के बढ़कर आए बिल का ठीकरा कूलर महाराज के सिर पर फोड़ दिया. उससे भी बुरा तब हुआ जब एक दिन नगर निगम विभाग का इंस्पेक्टर चैकिंग पर आया और कूलर महाराज के पेट (टंकी) में डेंगू मच्छर की उपस्थिति की तोहमत लगाकर चालान काटकर चला गया. इस कारण पिता जी को कोर्ट में पेशी भुगतनी पड़ी. सो माता-पिता दोनों ही कूलर महाराज से खिन्न हो गए. बहनें भी उनकी साफ़-सफाई से तंग आ चुकी थीं. उनके नन्हें-नन्हें हाथ उनकी सफाई करते-करते दुःख चुके थे. सो एक दिन कूलर महाराज को उनके आसान से पदच्युत कर आँगन के एक सुनसान कोने में पटक दिया गया. धीमे-धीमे धूल ने उन्हें अपने शिकंजे में कसना आरंभ कर दिया. बेचारे छलकती आँखों से सबको देखते रहते थे. कालोनी में देखा तो अधिकांशतः घरों के कूलर अपने-अपने आसन त्याग चुके थे. कालोनी के सभी प्रेमी-प्रेमिकाएँ प्रसन्न हो जश्न मना रहे थे. अब हमारे कूलर महाराज को अपने बीते हुए सुहाने दिन याद आने लगे और उन्हीं सुहाने दिनों को याद करते-करते वह कुम्भकर्णी निंद्रा में लीन हो गए तथा अगली गर्मियों तक जागने का उनका बिल्कुल भी इरादा नहीं था.
सुमित प्रताप सिंह
इटावा, दिल्ली, भारत