उस दिन बड़े दिनों बाद वह अपनी माँ के साथ दिखाई दी थी. उसकी भरी माँग और साज-सिंगार देखकर पता चल रहा था, कि उसकी शादी हाल ही में हुई हो. उसे देखकर अचानक आँखें भर आईं और इससे पहले वो मुझसे बात कर पाए, मैंने झट से घर का बाहरी गेट खोला और अपने घर के आँगन में पहुँच गया. आँगन में उदास बैठा हुआ था, कि माँ चाय बनाकर ले आईं.
                                            
                                            
                                              “बेटा चाय में चीनी कम हो तो और ले लेना.” माँ ने जल्दबाजी में कहा.
                                            
                                            
                                              “ठीक है.” हालाँकि मेरे हिसाब से चाय फीकी थी पर जाने क्यों चीनी से मन फट सा गया था. फिर से उसका चेहरा मस्तिष्क में मंडराने लगा. यूँ अचानक ही चुपचाप शादी कर ली. अगर मुझे बता देती तो कौन सा मैं शादी में कोई अडंगा लगा देता. हालाँकि उसकी माँ ने बताया तो था कि अंजू की शादी रुक गई है, लेकिन यूँ अचानक चोरी-छिपे शादी करने का मतलब क्या है?
                                            
                                            
                                              “बेटा चाय में चीनी इतनी कम थी, फिर भी तुमने और चीनी क्यों नहीं माँगी?” माँ ने अचानक आकर पूछ लिया.
                                            
                                            
                                              “बस माँ अब फीकी चाय ही अच्छी लगने लगी है.” मैंने बिना अपना सिर उठाए माँ को जवाब दे दिया.
                                            
                                            
                                              “आज सुबह मार्केट में अंजू अपनी माँ के साथ मिली थी. उसकी शादी हो गई है.” माँ ने बासी खबर सुनाई.
                                            
                                            
                                              “हाँ मुझे भी मिली थीं माँ-बेटी. अभी कुछ देर पहले ही अपने गेट के बाहर से निकली थीं.” मैंने अपने पैरों के नाखूनों को खुरचते हुए जवाब दिया.
                                            
                                            
                                              “तो तुम्हारी कोई बात नहीं हुई?” माँ ने एक और सवाल दाग दिया.
                                            
                                            
                                              “नहीं और न ही मैं उससे बात करने का इच्छुक हूँ.” अब मैंने माँ की आँखों में आँखें डालकर कहा.
                                            
                                            
                                              “अरे पगले तो इसमें रोने की क्या बात है? नहीं बुलाया न सही. कौन सा हम मरे जा रहे थे उसकी शादी में जाने को.” माँ को हल्का सा गुस्सा आ गया.
                                            
                                            
                                              “माँ कल से मैं चीनी की चाय नहीं पियूँगा. गुड़ की ही बना दिया करना.” मैंने अपनी आँखों पर ठंडा पानी छिड़कते हुए माँ से आग्रह किया.
                                            
                                            
                                              “बेटा अगर अंजू ने तुम्हारे साथ गलत व्यवहार किया तो इसमें चीनी का क्या कसूर?” माँ ने समझाने की कोशिश की, लेकिन न जाने क्यों अब चीनी लेने का दिल ही नहीं करता था और इसके लिए जिम्मेवार थी सिर्फ और सिर्फ अंजू.
                                            
                                            
                                              बचपन से ही मन ऐसा है कि किसी से भी बैर करने की इच्छा ही नहीं रही. समाज में सभी लोगों को किसी न किसी रिश्ते के बंधन में कैद कर लेता था. मुझे याद है कि रक्षा बंधन के दिन जब अपनी बहनों से राखी बंधवाने के बाद जब दोस्त की सगी बहन और अपनी मुँहबोली बहन रूबी से राखी बँधवाने गया, तो उसके ऊपरी फ्लोर पर रहने वाली लड़की अंजू भी वहीं मिल गई. अंजू जिद करके मुझे अपने साथ अपने घर ले गई और अपनी माँ से कहने लगी माँ मैं भी भैया के राखी बांधूंगी. माँ ने उसे समझाया कि सिख धर्म में राखी का त्योहार नहीं मनाया जाता, पर अंजू के बाल हठ के आगे सबको हार माननी पड़ी.
                                            
                                            
                                              अंजू ने राखी का जुगाड़ तो कर लिया पर राखी के बाद खिलाने को मिठाई नहीं थी. इसका हल भी नन्ही-मुन्नी अंजू ने खोज लिया और रसोई से भागकर चीनी का डिब्बा ले आई और मिठाई की जगह चीनी से ही अपने नए भाई का मुँह मीठा कर दिया. तबसे ही उस नन्ही बहन का खिलाया मिष्ठान चीनी बहुत भाने लगा था और चाय में चीनी नामक मिष्ठान अच्छी-खासी मात्रा में शोभा बढ़ाता था.
                                            
                                            
                                              हर रक्षा बंधन पर अंजू अपने इस भाई का राखी की थाली लिए इंतज़ार करती और जब तक अपने भाई को राखी नहीं बांध लेती थी, तब तक भोजन भी नहीं करती थी. जब भाई ने नौकरी के लिए आवेदन किया तो सगी बहनों ने जहाँ बंशी वाले से प्रार्थना की, मुँह बोली बहन अंजू ने अपने वाहे गुरु से अपने भाई की नौकरी के लिए दुआएँ माँगी थीं. इस भाई ने भी सगी बहनों और मुँहबोली बहन में कभी कोई भेदभाव नहीं किया था. ऐसे ही भाई-बहन के प्यार में कई साल गुज़र गए.
                                            
                                            
                                              पिछले रक्षा बंधन पर राखी बँधवाने गया तो अंजू की माँ ने खुशखबरी सुनाई थी. मेरी प्यारी बहन अंजू का रिश्ता रुक गया था. जिस गबरू मुंडे से मेरी मुँहबोली बहन का रिश्ता रुका था वह पंजाब में ही रहता था. सुनकर खुशी हुई कि मेरी बहन अपना नया जीवन शुरू करने जा रही है और दुःख हुआ कि मेरी प्यारी बहन मुझसे इतनी दूर चली जायेगी. उससे भी ज्यादा दुःख इस बात का लगा कि बहन का रिश्ता रुका और इस भाई को कोई खबर ही नहीं की. अंजू की माँ ने खबर न करने के लिए माफ़ी माँगी और बताया कि रिश्तेदारी में गए हुए थे, वहीं अंजू को पसंद कर लिया गया. खैर अपनी बहन के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और उसके सुखमय जीवन की कामना की. अंजू ने शरमाकर कहा कि भैया बहन की शादी में काम आपको ही संभालना पड़ेगा. मैंने उसके हल्की सी चपत लगाकर कहा कि भाई नहीं संभालेगा, तो क्या बाहर वाले आएँगे.
                                            
                                            
                                              उस दिन अंजू के पिता लंबी छुट्टी के लिए भटकते ऑफिस में मिले तो थे. छुट्टी का विषय था बेटी की शादी. मैंने उनका छुट्टी करवाने में सहयोग भी किया था, पर अंजू की शादी जाने कब हो गई कि पता ही न चला. किसी ने ठीक ही कहा है कि अपने अपने ही होते हैं और पराये पराये. तो मेरी मुँह बोली बहन ने भी, जिसे मैं प्यार से अक्सर चीनी वाली बहन से संबोधित करता था, आखिर ये अहसास दिलवा ही दिया कि वो पराई बहन थी. सगी होती तो क्या ऐसा व्यवहार करती.
                                            
                                            
                                              “ले बेटा गुड़ की चाय.” माँ के बोल सुनकर अहसास हुआ कि सुबह से शाम हो गई है.
                                            
                                            
                                              “माँ कल से चीनी की चाय ही बनाना. चीनी वाली बहन का बदला चीनी से क्यों लिया जाए?” मैंने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए माँ से कहा.
                                            
                                            
                                            
                                              “ठीक है मेरे समझदार बेटे.” इतना कहकर माँ ने मेरे हाथ से गुड़ की चाय छीनी और चीनी की चाय बनाने रसोई में घुस गईं.
                                            
                                            
                                              सुमित प्रताप सिंह 
                                            
                                            
                                            
                                              इटावा, नई दिल्ली, भारत 
                                            
                                            
                                              चित्रकार: इरा टाक