दिल्ली के श्री सुमित प्रताप सिंह की पुस्तक “व्यंग्यस्ते" पढ़ने को मिली। कविताओं में पत्र (पाती) लिखने की पुरानी विधा है। आदरणीय गोपालदस 'नीरज'की "नीरज की पाती" पुस्तक भी वर्षों पहले प्रकाशित हो चुकी है। अन्य कवियों एव लेखकों की भी पत्रों, चिठ्ठो, खत् आदि से मिलते-जुलते शीर्षकों पर कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, लेकिन पत्रों के द्वारा व्यंग्य आलेख सुमित जी की इस पुस्तक को विशिष्ट एवं अद्वितीय बनाते है। मैं तो इन पत्रों के मनोहारी चुटीले शीर्षकों व सम्बोधनों का मुरीद हो गया। इस संबंध में सुमित जी एकदम अलग,अनूठे और अद्वितीय व्यंग्यकार हैं। पुलिस डिपार्टमेंट में होते हुए भी व्यंग्य की विधा के प्रति दीवानगी प्रशंसनीय ही नही अपितु अनुकरणीय व वंदनीय भी है। पुलिस विभाग के कठोर अनुशासनात्मक वातावरण में रहने व कार्य करने वाले व्यक्ति का हृदय भी मानवीय समवेदनाओं के लिए इस तरह स्पंदित होता है यह आपने आप में सुखद अजूबा है।
श्री सुमित जी ने पत्रों के माध्यम से समाज में व्याप्त विकृतियों, विसंगतियों विषमताओं पर तीखा प्रहार किया है। लोकतंत्र महाराज के नाम अपने पत्र में ही सुमित जी वर्तमान राजनीतिज्ञों की करतूतों पर कितने व्यथित है इसका एक उदाहरण देखिये - पुराने राजाओं व नवाबों ने नया चोला धारणकर लिया व राजनीति में आ गये, राजनीति को कुछ परिवारों ने अपनी पैतृक संपत्ति मान लिया तथा राजनैतिक दलों में उनके पूतों व कपूतों के सिवा किसी अन्य को महत्व/जगह नहीं दी जाती है। सुमित जी के अनुसार जब सदन में लात-घूँसे, जूते-चप्पल चलते हैं व अभद्र भाषा का प्रयोग होता है तो उनके शिष्ट व विशिष्ट लेखक मन को मर्मांतक पीड़ा होती है। इसी बात को सुमित जी के आधुनिक नेता के नाम पत्र में भी नेताओं द्वारा स्वार्थवश आपस में लड़ने व झगड़ने पर गहरी वेदना व्यक्त की है।
हिंदी की दुर्दशा पर "हिन्दी के नाम पत्र" में उनकी पीड़ा को सहज ही महसूस किया जां सकता है वो अपनी पीड़ा को इन शब्दों में उकेरते हैं- " हिन्दी संसार की दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। संसार में सबसे अधिक समाचार पत्र व टी.वी. चैनल हिन्दी के ही हैं। हिन्दी फिल्मों के नायक-नायिकाएँ व फिल्मों से जुड़े अन्य लोग जिन्होंने हिन्दी माध्यम से खूब धन अर्जित किया है किन्तु हिन्दी बोलने पर वे शर्म महस करते हैं। कलयुगी रावणों के बढ़ते आकार, प्रकार व नारी दुर्दशा पर सुमित जी ने लंकाधीश रावण के नाम पत्र में इन शब्दों में अपना क्षोभ व्यक्त किया है -" अपने युग में आप (रावण) इकलौते थे किन्तु कलयुग में हर गली हर क्षेत्र में उत्पन्न हो चुके है, जिनके आगे आज के राम लक्षमण बेबस है", "समाज में नारी की अस्मिता इन रावणों के डर से थर थर काँप रही है"। बड़े शहरों में कुकुरमुत्तों सरीखी फैली हुई झोपड़पट्टी पर सुमित जी ने लिखा है - " झोपड़पट्टी में अपराधियों का एक छोटा संसार बसा हुआ है। वो आगे यह भी लिखते हैं- " किसी न किसी अन्धेरी झोपड़ी में अबलाओं का दिन-दहाड़े नियम से बलात्कार होता है। इन अबलाओं की सुनने वाला कोई नहीं होता क्यूँकि वे बेचारी गरीब होती हैं और इस कारण वे इस नियमित बलात्कार को अपनी नियति समझकर स्वीकार कर लेती है।
मजहब के नाम पर कट्टरवादी व संकुचित सोच वाले धर्म विशेष के सिरफिरों की करतूतों पर "ओसामा का ओबामा के नाम पत्र" में सुमित जी की सहृदयता इन शब्दों में स्पष्ट हो रही है- " क्या कोई धर्म चाहेगा कि विनाश का रास्ता अपनाया जाए अथवा उस्के बच्चे आपस में लड़कर खून बहाएं, लूटपाट करें,बलात्कार करें या एक-दूसरे का घर जलाएं? भारत की जेलों में इंसानियत व भारतीयता के दुश्मन आतंकवादियों को कठोरतापूर्वक प्रताड़ित करने के बजाय वोट बैंक की खातिर जिस तरह ऐशो-आराम की सुविधाएँ मिल रही हैं उस पर हर सच्चे भारतीय की भांति सुमित जी की अन्तर्वेदना "आतंकियों का जिहादियो के नाम पत्र" में देखने को मिल जाती है- “भारतीय जेलों में पकड़े गए तो मजे ही मजे हैं। यहाँ की जेलों में ऐश करोगे। दस-पन्द्रह साल तो मुकदमे में ही लग जायेंगे और सजा हुई तो अगले दस-पन्द्रह साल इस विचार में की सजा की तामील की भी जाय अथवा नहीं? यहाँ जेलों में हम जिहादी किसी कैदी की तरह नहीं अपितु घर जमाई की भाँति रह रहे हैं। हमारी समस्त सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखा जाता है”।
एक सच्चे व्यंग्यकार की तरह सुमित जी अपने आसपास के वातावरण, घटनाओं, व परिस्थितियों में भी व्यंग्य तो देखते ही है पर इनमें उनके अंतर्मन में समाज विरोधी के प्रति जो आक्रोश अपेक्षा तथा मानवता के प्रति जो गहनतम आस्था है वह् भी कई स्थानों पर प्रकट हो रही है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं : -
1. एक पत्र पटाखों के नाम - यदि तुम्हें फटने का इतना ही शौक है तो भ्रष्टाचारियो के काले धन के भंडार में जाकर फटो और जलकर राख कर दो उस काली कमाई को जो गरीबों का खून चूसकर जमा की गई है।
2. एक पत्र मच्छर मियाँ के नाम - अगर आपको काटने की इतनी बुरी आदत है तो जेल में बन्द आतंकवादियों को काटो और इस देश के पानी में जन्म लेने का कर्ज चुकाओ।
3. एक पत्र जूते राजा के नाम - असली मजा तो तब आए जब आप बढ़ती मंहगाई पर चलो, जब आप स्विस बैंक में काले धन छिपाने वालों पर चलो, जब आप आतंकवाद व नक्सलवाद पर चलो, जब आप तुष्टिकरण की नीति पर चलो । ये सब उदाहरण बतलाते हैं कि सुमित जी के रग-रग में राष्ट्रीयता की धारा सघनतापूर्वक प्रवाहित हो रही है। सहित्य के दृष्टि से भी सुमित जी ने अपनी इस पुस्तक में बहुत सुंदर व हृदयस्पर्शी शब्दावली का प्रयोग किया है। इसी संदर्भ में पापी पाकिस्तान के नाम पत्र में सुमित जी ने उल्लेख किया है कि1965, 1971 के बाद भी पापी पाकिस्तान द्वारा हम पर बार-बार जो आक्रमण किये गये और उसके बाद अनवरत रूप से किये जा रहे झूठे सन्धि प्रस्ताव व वादा खिलाफी के बाद हम इतने आहत हो गये हैं कि : -
हिंदी की दुर्दशा पर "हिन्दी के नाम पत्र" में उनकी पीड़ा को सहज ही महसूस किया जां सकता है वो अपनी पीड़ा को इन शब्दों में उकेरते हैं- " हिन्दी संसार की दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। संसार में सबसे अधिक समाचार पत्र व टी.वी. चैनल हिन्दी के ही हैं। हिन्दी फिल्मों के नायक-नायिकाएँ व फिल्मों से जुड़े अन्य लोग जिन्होंने हिन्दी माध्यम से खूब धन अर्जित किया है किन्तु हिन्दी बोलने पर वे शर्म महस करते हैं। कलयुगी रावणों के बढ़ते आकार, प्रकार व नारी दुर्दशा पर सुमित जी ने लंकाधीश रावण के नाम पत्र में इन शब्दों में अपना क्षोभ व्यक्त किया है -" अपने युग में आप (रावण) इकलौते थे किन्तु कलयुग में हर गली हर क्षेत्र में उत्पन्न हो चुके है, जिनके आगे आज के राम लक्षमण बेबस है", "समाज में नारी की अस्मिता इन रावणों के डर से थर थर काँप रही है"। बड़े शहरों में कुकुरमुत्तों सरीखी फैली हुई झोपड़पट्टी पर सुमित जी ने लिखा है - " झोपड़पट्टी में अपराधियों का एक छोटा संसार बसा हुआ है। वो आगे यह भी लिखते हैं- " किसी न किसी अन्धेरी झोपड़ी में अबलाओं का दिन-दहाड़े नियम से बलात्कार होता है। इन अबलाओं की सुनने वाला कोई नहीं होता क्यूँकि वे बेचारी गरीब होती हैं और इस कारण वे इस नियमित बलात्कार को अपनी नियति समझकर स्वीकार कर लेती है।
मजहब के नाम पर कट्टरवादी व संकुचित सोच वाले धर्म विशेष के सिरफिरों की करतूतों पर "ओसामा का ओबामा के नाम पत्र" में सुमित जी की सहृदयता इन शब्दों में स्पष्ट हो रही है- " क्या कोई धर्म चाहेगा कि विनाश का रास्ता अपनाया जाए अथवा उस्के बच्चे आपस में लड़कर खून बहाएं, लूटपाट करें,बलात्कार करें या एक-दूसरे का घर जलाएं? भारत की जेलों में इंसानियत व भारतीयता के दुश्मन आतंकवादियों को कठोरतापूर्वक प्रताड़ित करने के बजाय वोट बैंक की खातिर जिस तरह ऐशो-आराम की सुविधाएँ मिल रही हैं उस पर हर सच्चे भारतीय की भांति सुमित जी की अन्तर्वेदना "आतंकियों का जिहादियो के नाम पत्र" में देखने को मिल जाती है- “भारतीय जेलों में पकड़े गए तो मजे ही मजे हैं। यहाँ की जेलों में ऐश करोगे। दस-पन्द्रह साल तो मुकदमे में ही लग जायेंगे और सजा हुई तो अगले दस-पन्द्रह साल इस विचार में की सजा की तामील की भी जाय अथवा नहीं? यहाँ जेलों में हम जिहादी किसी कैदी की तरह नहीं अपितु घर जमाई की भाँति रह रहे हैं। हमारी समस्त सुख-सुविधाओं का पूरा ध्यान रखा जाता है”।
एक सच्चे व्यंग्यकार की तरह सुमित जी अपने आसपास के वातावरण, घटनाओं, व परिस्थितियों में भी व्यंग्य तो देखते ही है पर इनमें उनके अंतर्मन में समाज विरोधी के प्रति जो आक्रोश अपेक्षा तथा मानवता के प्रति जो गहनतम आस्था है वह् भी कई स्थानों पर प्रकट हो रही है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं : -
1. एक पत्र पटाखों के नाम - यदि तुम्हें फटने का इतना ही शौक है तो भ्रष्टाचारियो के काले धन के भंडार में जाकर फटो और जलकर राख कर दो उस काली कमाई को जो गरीबों का खून चूसकर जमा की गई है।
2. एक पत्र मच्छर मियाँ के नाम - अगर आपको काटने की इतनी बुरी आदत है तो जेल में बन्द आतंकवादियों को काटो और इस देश के पानी में जन्म लेने का कर्ज चुकाओ।
3. एक पत्र जूते राजा के नाम - असली मजा तो तब आए जब आप बढ़ती मंहगाई पर चलो, जब आप स्विस बैंक में काले धन छिपाने वालों पर चलो, जब आप आतंकवाद व नक्सलवाद पर चलो, जब आप तुष्टिकरण की नीति पर चलो । ये सब उदाहरण बतलाते हैं कि सुमित जी के रग-रग में राष्ट्रीयता की धारा सघनतापूर्वक प्रवाहित हो रही है। सहित्य के दृष्टि से भी सुमित जी ने अपनी इस पुस्तक में बहुत सुंदर व हृदयस्पर्शी शब्दावली का प्रयोग किया है। इसी संदर्भ में पापी पाकिस्तान के नाम पत्र में सुमित जी ने उल्लेख किया है कि1965, 1971 के बाद भी पापी पाकिस्तान द्वारा हम पर बार-बार जो आक्रमण किये गये और उसके बाद अनवरत रूप से किये जा रहे झूठे सन्धि प्रस्ताव व वादा खिलाफी के बाद हम इतने आहत हो गये हैं कि : -
अब मरहम पर भी रहा ना यकीं
पड़ोसी ने ऐसे दिए है घाव गहरे।
पड़ोसी ने ऐसे दिए है घाव गहरे।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सुमित जी द्वारा रचित "व्यंग्यस्ते" देश व समाज के विभिन्न आयामों को बड़ी कुशलता व कुशाग्रता से अभिव्यक्त कर रही है। वे इसी तरह अनवरत साहित्य सृजन करते हुए हिन्दी पाठकों की आशा अपेक्षाएँ पूर्ण करते रहेंगे इसी विश्वास के साथ शुभकामनाओं सहित।
समीक्षाकार - वीरेश अरोड़ा "वीर"
गाँधी नगर, गुजरात