हमारा देश भी अज़ब विरोधाभाषों से भरा है.एक और तो माहवारी के दिनों में बहुसंख्यक भारतीय परिवारों में महिलाओं को नियम-कानून और बंधनों की बेड़ियों में इसतरह जकड़ दिया जाता है कि उन दिनों में उनकी दिनचर्या घर के कोने तक सिमटकर रह जाती है और वहीँ दूसरी ओर,जब असम के कामाख्या मंदिर में देवी रजस्वला होती हैं तो मेला लग जाता है. लाखों लोग रजस्वला होने के दौरान देवी को ढकने के लिए इस्तेमाल किए गए कपड़े और गर्भगृह में जमा पानी को बतौर प्रसाद हासिल करने के लिए जी-जान लगा लेते हैं. घर की माँ और देवी माँ के बीच इतना फर्क?
असम के गुवाहाटी में नीलांचल पर्वत पर स्थित कामाख्या मंदिर और यहाँ हर साल जून माह में लगने वाला अम्बुबाची मेला किसी परिचय का मोहताज नहीं है. यह मंदिर देवी के 51 शक्तिपीठों में खास स्थान रखता है. धार्मिक आख्यानों के अनुसार सती के आत्मदाह से आहत महादेव का क्रोध शांत करने और उनके कोप से संसार को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने जब सती के शव को सुदर्शन चक्र से काटा था तब इस स्थान पर उनकी योनी गिर गयी थी इसलिए यहाँ मूर्ति के स्थान पर देवी की योनी की पूजा होती है.
ऐसी मान्यता है कि अम्बुबाची मेले के दौरान देवी रजस्वला होती है इसलिए उन तीन दिनों में मंदिर बंद रहता है लेकिन देवी के रजस्वला होने को समारोह पूर्वक मनाने के लिए मंदिर परिसर में लाखों लोग जुटते हैं. उन दिनों मंदिर में न केवल पूजा-पाठ रोक दिया जाता है बल्कि भोजन-प्रसाद का निर्माण तक नहीं होता. माना जाता है कि इस दौरान मंदिर की आध्यात्मिक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है इसलिए मंदिर परिसर में तांत्रिक और श्रद्धालु दिन-रात देवी की साधना में तल्लीन रहते हैं. चौथे दिन देवी की स्नान के साथ ही ‘शुद्धि’ होती है और उसके बाद विधि-विधान के साथ मंदिर के द्वार खुलते हैं और फिर परम्परागत पूजा अर्चना शुरू होती है. इस दिन खास तौर पर प्रसाद के रूप में अंगोदक यानी देवी का जल और अंगवस्त्र यानी देवी के उस वस्त्र के टुकड़े ,जिससे उन्हें रजस्वला वाले दिनों में ढका गया था, वितरित किए जाते हैं.लोगों का यह विश्वास है कि इस वस्त्र को घर में रखने से सुख,समृद्धि और संपत्ति बढती है.
तंत्र-मन्त्र में विश्वास रखने वाले लोगों, तांत्रिकों, बाबाओं, भैरवों, सन्यासियों और श्रद्धालुओं को पूरी शिद्दत से अम्बुबाची मेले का इन्तजार रहता है. हम इसे पूरब का महाकुम्भ भी कह सकते हैं. तांत्रिक पर्व के नाम से विख्यात यह मेला इस वर्ष 22 से 24 जून के बीच आयोजित होगा. मेले में शामिल होने के लिए देश ही नहीं बल्कि दूसरे देशों से भी साधक और तांत्रिक जुटने लगे हैं. इनमें कई ऐसे तांत्रिक एवं सन्यासी हैं जो सालभर में बस इसी समय लोगों के सामने आते हैं. मेले का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि मेले के दौरान हर रोज एक लाख से ज्यादा लोग कामाख्या मंदिर आते हैं.
अब फिर उसी मूल प्रश्न पर लौटते हैं कि आखिर घर की देवी और मंदिर की देवी के बीच यह फर्क क्यों? मेरा मानना है कि महिलाओं के साथ माहवारी के दिनों जैसे भेदभाव को दूर करने के लिए ही शायद कामाख्या मंदिर में इसतरह की परंपरा शुरू की गयी होगी लेकिन हमने अपने बौद्धिक पिछड़ेपन के कारण इस सीख से सबक लेने के स्थान पर माँ और मंदिर के फर्क को और बढ़ा दिया. हमारे धार्मिक ग्रंथ ऐसे अनुकरणीय उदाहरणों से भरे पड़े हैं जिनमें दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती,काली के माध्यम से स्त्रियों के सम्मान की नसीहत दी गयी हैं परन्तु हमारी अज्ञानता के कारण हमने इन कथाओं को जीवन में अपनाने की बजाए पूजनीय बनाकर मंदिर तक ही सीमित कर दिया और घर की देवी के साथ अत्याचार और प्रताड़ना के नए-नए तरीके इजाद करते जा रहे हैं. जब घर में जीवंत गृहलक्ष्मी या गृह-शक्ति का सम्मान नहीं कर सकते तो फिर मंदिर में मूर्तियों की परिक्रमा से क्या लाभ?
संजीव शर्मा
संपादक, सैनिक समाचार,
असम, भारत