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गुस्सा छोड़

Thursday, October 23, 2014

कविता : मत ठुकराओ

आदरणीय बंधुजनों एवं मित्र जनों 
सादर ब्लॉगस्ते!

आप सभी को दीपों के इस पर्वर दीपावली की अशेष शुभकामनाएँ।आज दीपावली के शुभ अवसर पर आदरणीय माता-पिता के चरणों में बैठकर निम्नलिखित कविता का निर्माण हुआ है। आशा है आप सबको पसंद आएगी।



न न मुझको
अब नहीं रही है  
स्वर्ग पाने की
वो बेकार सी चाहत
क्योंकि मैं तो पहले ही
रहता हूँ स्वर्ग सरीखी
माता की ममतामयी और
पिता की स्नेहिल छाया में
न न मुझको
अब नहीं भातीं   
स्वर्ग की सुख-सुविधाएँ
न करता हूँ इच्छा
वहाँ के छप्पन भोगों की
मेरा मन तो रमता है
माँ के हाथ की
दाल और रोटी में
न न मुझको
अब नहीं रिझातीं
स्वर्ग की वो सुंदर परियाँ
मैं तो खो जाता हूँ
सीधी-सादी भोली सी
उस लड़की के भोले चेहरे में
न न मुझको नहीं सुहाता
देवों संग जा मिलना-जुलना
मेरा तो मन लगता है
अपने मित्र-सखाओं में  
और बंधुओं की टोली में
न न मुझको
नहीं छोड़ना इस धरती को
मुझे तो भगवन
बार-बार भेजना यहीं
भारत की इस देव भूमि में
इसी की खातिर जियूँ
इसी की खातिर मरूँ हमेशा
न न मुझको
नहीं चाहिए सिवा इसी के
दे दो बस ये छोटा सा वर
मत ठुकराओ मत ठुकराओ

© सुमित प्रताप सिंह 
इटावा, नई दिल्ली, भारत