इस बार ठंड खूब पड़ी थी। हर कोई अनुमान लगा रहा था कि इस बार गरमी भी खूब पड़ेगी। अप्रैल में तपन शुरू हो गई थी। मगर प्रकृति से कौन जीत पाया है? सारे अनुमान धरे के धरे रह जाते हैं। यही हुआ। मई की शुरूआत हुई और घनघोर बारिश शुरू हो गई। पहली बारिश में बच्चे नाचने लगे। जोर-जोर से गाने लगे। कागज की नाव बनाने लगे। वहीं बुजुर्ग आसमान को शक की नजर से देखने लगे। कामिल ने जोर से आवाज लगाई,‘आयशा। इधर आ। सामान बांधना है। मनमसा बाढ़ लेकर गांव में आने वाली है।’ आयशा ने सुना और चुपचाप खड़ी हो गई। पास-पड़ोस के संगी-साथियों ने भी सुना। मगर वह फिर खेलने में मस्त हो गए। आयशा ने आसमान की ओर देखा। आसमान में घनघोर बादल छाए हुए थे। तेज बारिश की बूंदों के कारण आयशा ने अपनी आँखें बंद कर ली। क्षितिज काले रंग से रंगी हुई थी। आयशा अब्बू की घोषणा से
परेशान हो गई। यह पहली बार नहीं था, जब अब्बू ने सामान बांध्ने की बात कही थी। मगर मई के महीने में तो कभी ऐसा नहीं हुआ था। आयशा का चेहरा बुझ गया। वह धीमे कदमों से अपने अब्बू के सामने खड़ी हो गई। उसने धीरे से कहा- ‘अब्बू। क्या हमें यह गांव भी छोड़ना होगा?’
कामिल ने आयशा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा,‘आसार तो यही लग रहे हैं। देख नहीं रही। मई का महीना और घनघोर बारिश। मैं इन काले, घने और गड़गड़ाते बादलों को अच्छी तरह जानता हूं। ये अब नहीं जाने वाले हैं। तू भूल गई क्या? दो साल पहले क्या हुआ था। मनमसा नदी हमारे घर में घुस आई थी। हम
अपनी छत भी उखाड़ नहीं पाए थे। तेरी गौरी गाय भी बाढ़ में बह गई थी। इस बार हमें अपना जरूरी सामान तो बचाना है।’ आयशा की आंखों में आंसूओं की झलक देखते ही कामिल ने प्यार से कहा-‘ अरे। ज़िन्दा रहेंगे तो नया घर भी बना लेंगे। चल अब जल्दी से रस्सियों का ढेर ले आ। तेरी बनाई हुई रस्सियां अब काम आएंगी।’ आयशा ने पलक झपकते ही हथेली से आंसू पोंछे और दौड़कर अंदर गई। रस्सियां हाथ में लपेट कर उसने पूछा,‘अब्बू! हम फिर मनमसा की पूजा क्यों करते हैं? जब मनमसा हमारे गांव उजाड़ देती है। मनमसा को दया नहीं आती? उसे हर साल बाढ़ लाने में मज़ा क्यों आता है?’ ‘बेटी। यह तो कुदरत है। मनमसा लाखों गांवों को सींचती भी तो है। शहरों को पानी देती है। अच्छा अब जा। अपनी नाव तो देख। उसके चप्पू ठीक से बंधे हैं कि नहीं? लालटेन में किरोसिन है ? जग और बाल्टियां नाव में रखी हैं कि नहीं। तब तक मैं छत की टीनों को बारी-बारी से उखाड़ता हूं।’ कामिल ने एक-एक कर बहुत सारे काम आयशा को सौंपते हुए कहा। वैसे मनमसा नदी ने इस ओर दो सालों से पलट कर नहीं देखा था। मगर कामिल को
यकीन हो चला था कि अब मनमसा को कोई नहीं रोक पाएगा। दो साल पहले भी तो ऐसा ही कुछ हुआ था। मई के महीने में ही बारिश शुरू हो गई थी। दो दिन तक लगातार बारिश हुई थी। तीसरी रात बारिश ने अपनी गति बढ़ा दी। मनमसा अपने तटों को काटती हुई गांवों में तबाही मचाने आ गई। जो लोग सोए हुए थे, वे हमेशा के लिए मनमसा में समा गए। जो जागे हुए थे वे अपनी जान बचाने के अलावा कुछ भी नहीं बचा पाए थे। भारी तबाही के बाद अभी गांव दोबारा बस रहे थे। लोग अभी तक नई जगह में अपना बसेरा बसा ही रहे थे। अभी बिछुड़े हुए मिले भी नहीं थे। अपनों की खोज-खबर चल ही रही थी। वहीं कामिल को यह तेज बारिश मनमसा नदी में बाढ़ लाने का संकेत दे चुकी थी।
कामिल मछुवारा था। मछली पकड़कर अपना और अपनी बेटी का पेट पाल रहा था। बीवी कई साल पहले मर गई थी। मनमसा में आई बाढ़ ने ही उसे निगल लिया था। उस समय आयशा आठ महीने की ही थी। कामिल का पहला गांव रजता, दूसरा गांव बोराहेरी, तीसरा हसनपुर, फिर लाछाना, और अब हरिपुर। अब तो कामिल ने गांव के नाम याद रखने ही छोड़ दिए। बारिश कब ठिकाना छोड़ने पर विवश कर दे, यह
किसी को पता नहीं था। बाढ़ तो मानों हर साल आने लगी थी। कामिल जैसे सैकड़ों थे, जिन्हें हर बारिश में अपने ठिकाने को बदलने के बारे में सोचना पड़ता था।
कामिल जैसे हजारों हैं जो मनमसा के कोप का अक्सर शिकार होते हैं। कोई कब तक याद रखे कि कौन-कौन से गांव छोड़कर नई जगह आया है। हर साल बाढ़ उनके घरों को निगल जाती है। यही कारण है कि लोगों को घर बनाने में दिलचस्पी ही नहीं रही। हजारों कामिल हैं, जो हर रोज कुआँ खोद कर प्यास बुझाते हैं। जहां कल की रोटी का अता-पता न हो, वहां अच्छा घर बनाने की बात कोई सोच भी कैसे सकता है। कामिल ने आयशा के सहयोग से जरूरी सामान बांध् लिया था। बारिश की गति बढ़ती ही जा रही थी।
आयशा केले के पेड़ पर बैठी हुई है। उसने पानी में काँटा फैंका। पल भर में ही मछली काँटे में फंस गई। वह खुशी से उछल पड़ी। उसने केले के पेड़ से ही पानी में छलांग लगाई। मछली काफी बड़ी थी। मनमसा अपने उफान पर है। नदी का पानी जब भी गांव में घुसता है तो घर के आधे लोग मछली पकड़ने का काम शुरू कर देते हैं और बाकी आधे लोग घर का सामान समेटने में लग जाते हैं। असुरक्षा भले ही कितनी बड़ी हो, जान-माल का संकट हो, तब भी एक सीमा के बाद तो पेट जलने ही लगता है। उसे बुझाने के लिए भोजन तो चाहिए ही। यही कारण था कि मनमसा की तबाही की आशंका भले ही कितनी प्रबल और पुख्ता हो, कहीं और जाने का मन बना चुके परिवार खाना तो बनाएंगे ही। फिर खाने में मछली बनेगी, तब भला कोई कैसे मन को बुझा हुआ रख सकता है।
आयशा मछली को काँटे से निकाल चुकी थी। मनमसा दूर तटों को तोड़ चुकी थी। बाढ़ का पानी बस्ती में बढ़ रहा था। आयशा ने एक नजर अपने घर की ओर देखा। जिसकी दीवारें बांस और एक प्रकार के घास से बुन कर बनाई हुई थीं। घर की दीवारों को बाढ़ ने अपनी आगोश में ले लिया था। आयशा के अब्बू ने मोटे बांसों को गाढ़कर मचान बना लिया था। जरूरी सामान उस मचान पर रख लिया गया था। बारिश लगातार हो ही रही थी। अब ऐसे में चूल्हा कैसे जलेगा। यही आयशा सोच रही थी।
कामिल ने आयशा को पुकारा,‘बेटी। यहां आ जाओ। कब तक भीगती रहोगी। मछली-भात भी तभी बनेगा,जब ये बारिश थमेगी।’ आयशा तब तक तीन मछली पकड़ चुकी थी। उससे कम उम्र की लडकियां भी मछली पकड़ने में व्यस्त थीं। परिस्थितियां सब कुछ सिखा देती हैं। बाढ़ वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे जन्म से ही पानी से जूझना सीख लेते हैं। उन्हें बार-बार घर बदलने की आदत पड़ जाती है। बाढ़ से होने वाली तबाही के वे आदी हो जाते हैं। वे जानते हैं कि गांव कभी भी छूट सकता है। घर कभी भी टूट सकता है। ऐसे में वे बारिश में तैरने और मछली पकड़ने का आनंद नहीं छोड़ते। उनके चेहरें में किसी प्रकार की चिन्ता
और डर के बादल भी नहीं दिखाई पड़ते।
अचानक आयशा रोने लगी। कामिल ने सोचा कि शायद आयशा ने साँप देख लिया है। बाढ़ के पानी के साथ कीड़े-मकोड़े और सांप-बिच्छुओं का आना कोई नई बात नहीं है। आयशा के चेहरे में अजीब तरह की मायूसी और डर के भाव थे। जो किसी साँप को देखने से नहीं आते। रोने का कारण पूछने पर आयशा ने कहा-‘अब्बू हम ये जगह छोड़कर नहीं जाएंगे। कभी नहीं।’ कामिल समझ ही नहीं पाया। फिर भी वह
बोला,‘बेटी। जाना कौन चाहता है। पर जाना तो होगा। हम सबसे बाद में जाएंगे। क्या पता पानी उतर जाए। पर यदि बारिश होती रही और पानी बढ़ता रहा तो जाना ही होगा न।’
‘अब्बू। मेरा यह कंचन का पेड़ तो यहीं छूट जाएगा।’ आयशा ने रोते हुए कहा। कामिल ने कंचन के पेड़ को देखा और थोड़ी देर बाद उदास होते हुए कहा- ‘हां बेटी। अब यह इतना बड़ा हो गया है कि इसे उखाड़ कर नहीं ले जा सकते। जब तू इसे पहले वाले गांव से लाई थी, तब यह बहुत छोटा था। यहां ये आसानी से पनप
भी गया था। पर अब ये अपनी जड़े जमा चुका है।’
आयशा पर तो जैसे बाल हठ सवार हो गया था। वह पैर पटकते हुए बोली-‘मैं यहां से नहीं जाऊंगी। मैं इसे छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी।’ कामिल को समझते देर नहीं लगी कि आखिर आयशा रो क्यों रही है। आयशा का कंचन के पेड़ से बेहद लगाव था। कंचन के पेड़ का पौध आयशा ने पिछले से पिछले वाले गांव में रोपा था। बाढ़ आने से वह उसे अपने साथ ले आयी थी। नई जगह पर उसने उसे लगन से फिर रोपा था। अभी वह थोड़ा बड़ा ही हुआ था कि फिर बाढ़ आ गई। वह उसे फिर उखाड़ कर अपने साथ ले आयी। बीते दो साल में कंचन का पेड़ इतना बड़ा हो गया कि अब उसे उखाड़ना संभव नहीं था।
‘बेटी। ज़िद नहीं करते। हो सकता है कि बाढ़ तेरे कंचन के पेड़ का बाल भी बांका न कर सके। तुम ऐसे कंचन के कई पेड़ लगा सकती हो। हमारी किस्मत में एक जगह ठहर कर घर बनाना ही नहीं है। यह भी जरूरी नहीं कि हम जहां जा रहे हैं, वहां बाढ़ कभी नहीं आएगी। हमें किसी जगह से मोह रखना ही नहीं है।
अपने आस-पास देखो। कितने हरे-भरे पेड़ हैं। ये भी किसी ने लगाएं हैं। ये लहराते हुए पेड़ हमे सिखाते हैं कि मुश्किलों का सामना करो। जो सामना नहीं कर पाते,वो बह जाते हैं।’ कामिल ने आयशा के गालों में रूके हुए आँसूओं को पोंछते हुए कहा।
आयशा दौड़ते हुए कंचन के पेड़ के पास गई। कंचन के पेड़ से लिपट गई और उसे बार-बार चूमने लगी। आयशा सुबकते हुए बोल रही थी,‘मैं जा रही हूँ। अपना ध्यान रखना। मनमसा के पानी से मत डरना। खड़े रहना। जब पानी उतर जाएगा न। फिर हम दोबारा यहीं आएंगे। यहीं घर बनाएंगे। अब्बू को छोड़कर मैं यहां कैसे रूक सकती हूँ। अब्बू को कौन देखेगा।’ मछली पकड़ रहे बच्चों ने आयशा को घेर लिया। वह नहीं समझ पाए कि आखिर क्या माजरा है। आयशा कंचन के पेड़ से ऐसे लिपटी हुई थी, जैसे वह कोई ब्याहता हो, और अपना मायका छोड़कर जा रही हो। कंचन के पेड़ से लिपटी आयशा को देखकर कामिल की आँखों से भी आँसू बहने लगे।
रचनाकार: श्री मनोहर चमोली ‘मनु’
पौड़ी गढ़वाल,उत्तराखण्ड